Book Title: Asht Pravachanmata Sazzay Sarth
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Bhanvarlal Nahta

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Page 30
________________ एषणा समिति क ढाल शब्दार्थ-चेतन तणी जीवात्मा की। नवी-नहीं, परसंगी-पुद्गलों के संग वाली । पर सनमुख-पुद्गलों के सामने । आतम रतिव्रती आत्म स्वरूप में खुश रहने वाले। भावार्थ...चेतन को चेतनता, चेतन के सिवाय दूसरों के साथ रहने वाली नहीं है । इसलिये आत्म रमण में रूचि वाले मुनि, अपनी वृत्तियों को पर (पुद्गल) सम्मुख नहीं करते । २ काय जोग पुद्गल ग्रहेजी, एह न आतम धर्म । जाणग कर्ता भोगता जी, हूँ माहरो ए मर्म-३ म० शब्दार्थ-जाणग-जानने वाला । कर्ता--करनेवाला। भोगता--भोगनेवाला। मांहरो--मेरा । मर्म-सार। भावार्थ ...आहार के पुद्गलों को ग्रहण करने का कार्य काय-योग़ का है। यह निश्चित है कि यह कार्य आत्मधर्म नहीं है। मैं ( आत्मा ) तो निश्चिय नय से मेरे आत्म स्वरूप का ज्ञाता, अपने ही में रहे हुये ज्ञानादि गुणों का कर्ता, तथा निजी आत्मिक सुख का भोक्ता हूं। यह एक मर्म ( रहस्य ) की बात है। -३ - नभिसंधिय वीर्य नो जी,रोधक शक्ति अभाव । पण अभिसंधिज वीर्य थी जी, केम ग्रहे पर भाव ---४ म० शब्दार्थ--अनिभिसंधिय--इन्द्रिय जनित। रोधक शक्ति--रोकने की ताकत अभाव=नहोना । अभिसंधि--आत्म जनित। ग्रहे--ग्रहण करे। परभाव-- पुद्गल । भावार्थ...अनभिसंधिय ( इन्द्रिय जनित ) वीर्य को रोकने वाली शक्ति का अभाव है, आत्म शक्ति (अभिसंधि) द्वारा पर भावों का ग्रहण भी नहीं हो सकता। अतः मुनि पर भानों का ग्रहण कैसे कर सकता है ! आत्मिकशक्ति और इन्द्रिय अवभिसंधित्व शक्ति अपना अलग-अलग काम करती है। ४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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