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श्रीजिनाय नम: आध्यात्म-रसिक पंडित प्रवर
श्री देवचन्दजी कृत आठ प्रवचन माता का सज्माय
( भावार्थ सहित )
दोहासुकृत कल्पतरु श्रेणिनी, वर उत्तर कुरु भौम ।
अध्यातम रस शशि कला, श्री जिनवाणो नौमि...१ कठिन शब्दार्थ-सुकृत-शुभकार्य । कल्पतरु-मनवंछित फल देने वाला वृक्ष । श्रेणी-क्ति। वर-अच्छी । उत्तर कुरु भोम-उत्तर कुरु क्षेत्र। अध्यात्मआत्म स्वा। शशिकला-चन्द्रमा की कला । नौमि-नमस्कार करता हूं।
भावार्थ-साधारण वृक्षों की उत्पत्ति भी अच्छी धरती के बिना नहीं हो सकती। अतः इच्छित फल-दाता कल्पवृक्षों के लिये उत्तरकुरु क्षेत्र की जमीन ही उत्तम मानी गई है। यहां पर ग्रंथकर्ता आदि मंगल में श्री जिनवाणी को उत्तरकुरुक्षेत्र के तुल्य बतला रहे हैं। जो कि कल्पवृक्ष से अधिक मनोवांछित फल देने की क्षमता-वाले सुकृत की जननी है । कल्पवृक्ष के विषय में यदि किसी को आस्था न भी हो, परन्तु सुकृत रूपी कल्पवृक्ष के मनोवांछित फल प्रदान करने में अनास्था का प्रश्न ही नहीं होता। एक ही उपमा से संतुष्ट न होकर इसे शशिकला से भी उपमित किया है। जैसे चन्द्रकिरणों से झरने वाला रस अमृत है, वैसे ही भगवद् बाणी से भरा हुआ अध्यात्म रस अवश्य अमृत है । इन गुणों वाली श्रीजिनवाणी को नमस्कार करने से अभेदोपचार से श्रीजिनेश्वरदेव को भी प्रणाम होजाता हैं।
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