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अष्ट प्रवचन माता सज्झाय
आवश्यकतानुसार आहार निहार विहार में समिति रूप किया करते हुए अपने लक्ष्य स्थान- सुख धाम-मोक्ष को प्राप्त करते है ।
चाहे समिति हो चाहे गुप्ति, किसी भी क्रिया के करने से पहले श्रमण को उचित है कि वह अपने आत्मा को निरखे-पहचाने। यदि द्रव्य से अर्थात् भावविना कोई क्रिया कर भी ली, तो वह द्रव्य क्रिया कहलायेगी । कहा है कि "अणुव ओगोदव्वं" अर्थात् आत्म उपयोग शून्य क्रिया को द्रव्य कहा जाय । आत्म उपयोग सहित पाला हुआ चारित्र भाव चारित्र है । जैसे समिति और गुप्ति, उत्सर्ग और अपवाद साथ-साथ चलते हैं । वैसे ही भाव ( निश्चय ) को दृष्टि में रखते हुए व्यवहार चारित्र का पालन करने से शिव संपत्ति की प्राप्ति बतलाई है । द्रव्म और भाव तथा निश्चय और व्यवहार दोनों की आवश्यक्ता है । -६
आतम गुण-- प्राग्भाव थी, जे साधक परिणाम । समिति गुप्ति ते जिन कहे, साध्य सिद्धि शिव ठाम – ७ - प्रागभाव थी — प्रगट होने से । साधक - साधना करनेवाला आत्मा । साध्य - मोक्ष |
शब्दार्थ->
भावार्थ साधना किसलिये की जाती है अर्थात् साध्य क्या है ? उसकी प्राप्ति में कौन-कौन से साधन काम में लिये जाते हैं और साधक किस कोटि का है । इन तीनों की शुद्धता ही मोक्ष का फल दे सकती है । मोक्ष साध्य है, समिति गुप्ति साधन है, और साधक़ मुमुक्षु आत्मा है ।
आत्म गुण प्रगट करने वाले ( होने से ) साधक के परिणामों को समिति - गुप्ति कहा जाता है। उससे साध्य - सिद्धि अर्थात् शिव स्थान मिलता है ।
शुद्धात्म बोध सहित साधक का व शुद्ध उपयोग स्वरूप परिणाम को निवृति - गुप्ति, तथा आवश्यकता पड़ने पर आत्म प्रतीतिसहजयणायुक्त प्रवृति को समिति (सर्वज्ञ) कहते है, इससे साध्य की सिद्धि होती है, वही मोक्ष है ।
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