________________
अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर)
प्रकाशकीय अनुरोध
वर्ष 2002 के परम पावन दशलक्षण पर्व की समाप्ति पर मैं समस्त कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ परिवार की ओर से शुद्ध हृदय से आप सबसे विगत वर्ष की भूलों हेतु क्षमायाचना करता हूँ। ज्ञानपीठ को अनवरत प्राप्त आपका प्रेम, स्नेह, वात्सल्यपूर्ण मार्गदर्शन एवं निस्पृह सहयोग हमारी सम्पत्ति है।
मुझे इस सत्य का अहसास है कि वर्ष 13 (3-4) के बाद 14
(2-3) का संयुक्तांक निकलना पाठकों को रूचिकर नहीं लग रहा होगा। पाठकों के पत्र इस बात के गवाह है कि उन्हें अंक का बेसब्री से इंतजार रहता है। हम अपने नेटवर्क की समीक्षा कर उन कारणों के निदान हेतु प्रयत्नशील है जिनके कारण लगभग 12 वर्ष तक नियमित रूप से प्रकाशन के उपरान्त वर्ष 13 एवं 14 (2001 एवं 2002) में यह पत्रिका कुछ अनियमित हो गई। हम पाठकों को विश्वास दिलाते हैं कि अगले अंक से पत्रिका नियमित रहेगी।
- हमारे अनुरोध पर पत्रिका के अनेक आजीवन सदस्यों ने 1100 % 00 की अतिरिक्त राशि भेजकर पत्रिका के सहयोगी सदस्य बनना स्वीकार किया है। हम 22.9.2002 तक सहयोगी सदस्यता ग्रहण कर चुके सदस्यों के नाम प्रकाशित कर रहे है। इन सभी को पूर्ववत पत्रिका नियमित जाती रहेगी।
1. श्री मोहनलाल खादीवाल, बैंगलौर 2. डॉ. एन.के. जैन, नागपुर 3. मेसर्स भगवानदास शोभालाल, सागर 4. श्री एस. सी. जैन, नई दिल्ली 5. श्री प्रेमचंद जैन, खारी बावली, नई दिल्ली 6. श्रीमती जया जैन, ग्वालियर
एक बार पुन: हम पूर्व में आजीवन सदस्यता (10 वर्ष हेतु) ग्रहण कर चुके सदस्यों से अनुरोध करेगें कि वे 1100 = 00 रू. की राशि भेजकर सहयोगी सदस्यता ग्रहण करने का कष्ट करें।
- अगले अंक में प्रकाश्य लेखों/टिप्पणियों का चयन कर हमने उन्हें अगले पृष्ठ पर सूचीबद्ध किया है। इससे स्पष्ट है कि अगले अंक में हम जैन इतिहास, पुरातत्व एवं पर्यावरण पर उपयोगी सामग्री पाठकों से प्रस्तुत कर सकेगें।
__ पत्रिका की विषय वस्तु के सन्दर्भ में पाठकों की प्रतिक्रियाओं का सदैव की भाँति स्वागत है।
22.09.2002
देवकुमारसिंह कासलीवाल
अर्हत् वचन, 14 (2 - 3), 2002
13
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org