Book Title: Arhat Vachan 2002 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 112
________________ धर्म का सत्य और विज्ञान का सत्य मिलकर जिस सत्य को उद्घाटित करते हैं उस तक पहुंचने में स्वयं को प्रवृत्त करना ही आध्यात्म की यात्रा है। प्रत्यक्षत: विज्ञान केवल भौतिक चीजों की सच्चाइयों का जानने का उपक्रम है। पर उनके संधान - अनुसंधान की प्रक्रिया में वह सम्यक् ज्ञान का वाहक बनता है और इस प्रकार अपनी अंतिम परिणति में आध्यात्म की राह प्रशस्त करता है। धर्म और विज्ञान दोनों का लक्ष्य सत्य की शोध है। धर्म का विषय आत्मा के सत्य को जानना है, विज्ञान का पदार्थ जगत के सत्य को। धर्म अदृश्य को स्पर्श करने का प्रयत्न करता है, विज्ञान अगम्य को गम्य बनाने का। दोनों गूढ़ से अगूढ़ की ओर प्रस्थान के प्रयास हैं, इसलिए दोनों के प्रवाह की दिशा एक है। इस दृष्टि से दोनों एकार्थक हैं। अपने चरम उत्कर्ष पर संभवत: एक दूसरे के पर्याय भी। सहचर तो है इसलिए दोनों की समरस आराधना ही गंतव्य तक पहुंचने का सबसे तेज वाहन है। धर्म का उद्भव श्रद्धा जनित नहीं। प्रारंभ में धर्म की कल्पना के पीछे भी विज्ञान की ही तरह बुद्धि, विवेक, विचार, तर्क, हेतु, प्रयोजन, युक्ति, कारण और न्याय ही रहे हैं। इनके आधार पर धर्म की जो परिभाषा बनी, कालान्तर में उसकी गलत व्याख्यायें हुई। फलस्वरूप धर्म में विसंगतियों और विकृतियों का समावेश हुआ। सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान के अभाव ने उन विकृतियों को धर्म का परिधान पहना दिया। कुछ का आग्रह रहा और कुछ का अज्ञान, जब दोनों मिले तो विवेक और युक्ति की जगह श्रद्धा ने ले ली। समय बीतता गया। श्रद्धा के आसन पर अन्ध श्रद्धा कब आरूढ़ हुई पता ही नहीं चला। दृष्टि आसन पर ही अटकी रही और हम भटक गये। केवल धर्म की नहीं, इन पृष्ठों पर विज्ञान की बात भी हम साथ लेकर चले थे। एक बार फिर लौटते हैं उस पर। धर्म की तरह विज्ञान भी सम्यक्दर्शन की साधना है, सम्यक्ज्ञान की आराधना है। विज्ञान विवेक और युक्ति को कभी छोड़ता नहीं और इसलिए अपने पथ से कभी भटकता नहीं। फलत: उसमें विसंगतियों और विकृतियों का प्रवेश नहीं होता। धर्म और विज्ञान में यही एक मूलभूत अन्तर बनता है और इस अन्तर को मिटाना हम सबका दायित्व है। आध्यात्म और विज्ञान के समन्वय का सूत्र जो भगवान महावीर ने दिया वह हमें इसी बिन्दु पर पहुंचाता है। भगवान महावीर ने सम्यक् ज्ञान को धर्म की आधारभूमि माना। आज का विज्ञान भगवान महावीर के सम्यक्ज्ञान के विशाल साम्राज्य का ही एक अंग है और इसलिए वह धर्म का भी एक अंग है। हमारी चिंतन धारा विज्ञान के साथ आत्मसात् होकर चले यही इष्ट है। धर्म के रूप में उसका अभिन्न अंग बनकर पल रही विकृतियों का जब हम सही आंकलन करेगें। यह आंकलन हमें निर्लिप्त निरपेक्ष होकर नहीं बैठने देगा। उनकी परिशुद्धि हेतु तब हमारे सतत प्रयास, अपने अंतिम चरण में, धर्म के जिस स्वरूप को सामने लायेंगे वही सच्चा धर्म होगा - विमुक्त, अनावृत और अनाच्छादित। तब कहीं एकान्त नहीं रहेगा, तब कही द्वेत नहीं रहेगा, तब कहीं द्वेध नहीं रहेगा। तब वहीं कोई सम्प्रदाय भी नहीं रहेगा। तब केवल धर्म रहेगा - निर्बन्ध, निरावरण और निर्विशोषण।। यह अहिंसा, सत्य और अपरिग्रह का धर्म होगा, यह अनेकान्त और अनाग्रह का धर्म होगा, यह दया और करूणा का धर्म होगा। यह मनुष्य का धर्म होगा और इसलिए भगवान महावीर को इस बात की अपेक्षा नहीं होगी कि यह धर्म उनके धर्म के नाम से जाना जाय। प्राप्त : 08.03.02 * एडवोकेट, 15, नूरमल लोहिया लेन, कोलकाता-7 110 अर्हत् वचन, 14 (2 -3), 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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