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विशिष्ट अतिथिगण तथा समाज के पदाधिकारियों द्वारा मंगल तिलक, माल्यार्पण, श्रीफल, उत्तरीय, शाल, प्रशस्तिपत्र, स्मृति चिन्ह व रू. 31000/- की नगद राशि भेंटकर सम्मानित किया। सर्वप्रथम आचार्य श्री शांतिसागर (छाणी) स्मृति श्रुत संवर्द्धन पुरस्कार - 2001 जैन आगम साहित्य के पारम्परिक अध्येता पं. मल्लिनाथ जैन शास्त्री (चैन्नई) को परोक्ष रूप में समर्पित किया गया।
आचार्य श्री सूर्यसागर स्मृति श्रुत संवर्द्धन पुरस्कार - 2001 प्रवचन निष्णात् डॉ. श्रेयांसकुमार जैन (बड़ौत) को तथा आचार्य श्री विमलसागर (भिण्ड) स्मृति श्रुत संवर्द्धन पुरस्कार - 2001 जैन पत्रकारिता के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान हेतु श्री जयसेन जैन (इन्दौर) को प्रदान किया गया।
आचार्य श्री
सुमतिसागर श्रुत संवर्द्धन श्री जयसेन पुरस्कार प्राप्त करते हुए
पुरस्कार - 2001 प्राप्त करने वाले जैन विद्या के शोध व अनुसंधान के क्षेत्र में समर्पित विद्वान डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर' (नागपुर) रहे। जबकि मुनिश्री वर्द्धमानसागर स्मृति श्रुत संवर्द्धन पुरस्कार - 2001 प्राप्त करने वालीं गाजियाबाद की परम विदुषी महिला डॉ. (श्रीमती) नीलम जैन रहीं।
इसी प्रकार सराक वर्ग के लोगों के उत्थान हेतु की गई प्रशंसनीय सेवा के लिये साढ़म (बोकारो) निवासी डॉ. कमलकुमार जैन को परोक्ष रूप से सम्मानित किया गया।
उल्लेखनीय है कि संस्थान द्वारा ये पुरस्कार सन् 1991 से विभिन्न क्षेत्रों में समर्पण देने वाले मनीषी जैन विद्वज्जनों को समर्पित किये जाते रहे हैं तथा अब तक संस्थान द्वारा 26 विद्वानों को सम्मानित किया जा चुका है।
केकड़ी के इतिहास में संभवत: यह प्रथम अवसर था जबकि विशाल स्तर पर यह भव्य आयोजन सम्पन्न हुआ।
'श्रुत संवर्द्धन संस्थान' के सम्माननीय अध्यक्ष प्रो. नलिन के. शास्त्री (लखनऊ) ने संस्थान की वर्तमान गतिविधियों एवं भविष्य की रूपरेखा पर प्रकाश डाला। कार्याध्यक्ष श्री योगेशकुमार जैन (खतौली), महामंत्री श्री हंसकुमार जैन (मेरठ) तथा कोषाध्यक्ष श्री विवेक जैन (गाजियाबाद) ने समारोह को सुव्यवस्थित रूप से सम्पन्न कराने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। पुरस्कार समिति के संयोजक डॉ. अनुपम जैन (इन्दौर) ने समारोह का सशक्त संचालन किया तथा श्री महावीरप्रसाद सिंघल (केकड़ी) ने समस्त आगत अतिथि एवं विद्वज्जनों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की।
* संपादक - सन्मतिवाणी, महावीर ट्रस्ट, 63, म.गांधी मार्ग, इन्दौर-452001
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अर्हत् वचन, 14 (2 - 3), 2002
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