Book Title: Arhat Vachan 2002 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 127
________________ गतिविधियाँ 'जैन शिलालेखों और प्राचीन जैन ग्रंथ प्रशस्तियों का योगदान' - संगोष्ठी श्री गणेश वर्णी दि. जैन संस्थान, वाराणसी में आयोजित सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र स्मृति व्याख्यानमाला के अन्तर्गत भारतीय इतिहास के निर्माण में जैन शिलालेखों एवं प्राचीन जैन ग्रंथ प्रशस्तियों का योगदान विषयक आयोजित पंचम व्याख्यान माला में राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित प्रो. राजाराम जैन, आरा ने प्रमुख वक्ता के रूप में बोलते हुए कहा कि जैन ग्रंथ प्रशस्तियों और शिलालेखों के अध्ययन और उपयोग के बिना भारतीय संस्कृति और इतिहास की समग्रता अधूरी ही रहेगी क्योंकि प्राचीन जैन शिलालेखों और ग्रंथ प्रशस्तियों में उल्लेखित तिथियाँ, राजवंश, नगरों/ग्रामों, आचार्य परम्परा आदि के उल्लेख बड़ी प्रामाणिकता से मिलते हैं। सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ डॉ. के.पी. जायसवाल, राखालदास बनर्जी के कथनानुसार उड़ीसा में भुवनेश्वर के पास स्थित विश्व विख्यात उदयगिरि की गुफाओं में हाथी गुम्फा में उपलब्ध जैन सम्राट खारवेल के शिलालेख के अनुसार भारतवर्ष का इतिहास लेखन कार्य प्रारंभ होता है। यदि वह शिलालेख न मिलता तो निश्चय ही ईसा पूर्व का भारतवर्ष का इतिहास अंधकार युगीन ही बना रहता। डॉ. जैन ने बडली, सम्राट अशोक एवं सम्राट खारवेल के प्राकृत शिलालेखों एवं ब्राह्मी लिपि के आधार पर बतलाया कि भारतवर्ष का प्राच्य कालीन इतिहास कितना शानदार रहा। डॉ. जैन ने आगे कहा कि खारवेल के शिलालेखों की 10 वीं पंक्ति में भारतवर्ष का नाम का उल्लेख न मिलता तो इस देश का नाम इतना सुन्दर न होता। आपने आगे कहा कि इस समय विदेशों में भारतवर्ष की एक लाख सत्ताईस हजार पाँच सौ (1,27,500) पांडुलिपियाँ सुरक्षित हैं। उनका सूचीकरण एवं मूल्यांकन जब तक नहीं हो जाता, तब तक मध्यकालीन भारतीय इतिहास का सर्वांगीण लेखन नहीं हो सकता। प्रारंभ में उन्होंने पांडुलिपियों का महत्व, पांडुलिपि लेखन, उसकी आवश्यकता, प्रादुर्भाव और विकास, पांडुलिपियों के उपकरण, ईसा पूर्व की सदियों में कागज और भोज पत्रों के प्रयोग, पांडुलिपियों का कृति मूलक वर्गीकरण, कागज की पांडुलिपियाँ, भारतीय प्राचीन लिपियाँ, जैन साहित्य लेखन परम्परा पर विशद विवेचन करते हुए जैन पांडुलिपियों की प्रशस्तियों में उपलब्ध कुछ ऐतिहासिक सामग्री पर रोचक दृष्टि से प्रकाश डाला। अंत में उन्होंने व्याख्यानमाला के शताब्दी पुरुष पं, फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री को श्रद्धांजलि अर्पित की। व्याख्यानमाला के संयोजक डॉ. फूलचन्द्र जैन 'प्रेमी' ने प्रारंभ में भारतीय इतिहास के निर्माण में जैन ग्रंथ प्रशस्तियों और शिलालेखों के योगदान की चर्चा करते हुए कहा कि यदि हमें भारतीय इतिहास का सही दृष्टि से अध्ययन करना है तो इस विषयक गंभीर अध्ययन और सर्वेक्षण आवश्यक है। सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन के उत्तरार्ध का अध्ययन करना है तो कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में चन्द्रगुप्त मौर्य का शिल्पांकन का अध्ययन आवश्यक है। इसी तरह भारत के अनेक राजाओं, राजवंशों और नगरों के अध्ययन के लिये जैन ग्रंथ प्रशस्तियों का अध्ययन आवश्यक है। मुख्य अतिथि के रूप में काशी विद्यापीठ के इतिहास विभागाध्यक्ष, प्रो. परमानन्दसिंह ने कहा कि जैन साहित्य अथाह है। जब तक हम प्राकृत, पालि, संस्कृत, अपभ्रंश आदि प्राचीन भाषाओं के साहित्य का अध्ययन नहीं करेंगे, तब तक भारतीय इतिहास के निर्माण में अनेक बाधायें सदा उपस्थित रहेंगी। इन भाषाओं के साहित्य की उपेक्षा भारतीय इतिहास और संस्कृति की उपेक्षा है। साहित्य समाज का दर्पण है। जैन साहित्य का भंडार इतना विशाल है कि कोई भी व्यक्ति जीवन में उसकी सूची भी बनाये तो भी संभव नहीं है। जैन ग्रंथ प्रशस्तियों से इतिहास की अनेक उलझी हुई गुत्थियाँ सुलझ सकती हैं। अध्यक्षीय वक्तव्य में भारत कला भवन के पूर्व निदेशक प्रो. रमेशचन्दजी ने कहा कि इस व्याख्यानमाला के प्रमुख वक्ता प्रो. राजाराम ने जैन ग्रंथ प्रशस्तियों और शिलालेखों के भारतीय इतिहास के निर्माण में योगदान की चर्चा की है वह बहुत ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि जैन साहित्य में, विशेषकर जैन पुराणों में भारतीय कला विषयक जो चिंतन का विकास मिलता है, वह अत्यंत दुर्लभ है। अर्हत् वचन, 14 (2 - 3), 2002 125 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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