Book Title: Arhat Vachan 2002 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 113
________________ अर्हत् वच कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर, टिप्पणी - 7 जैन गणित को समर्पित साध्वी आर्यिका श्री विशुद्धमती माताजी ■ डॉ. अनुपम जैन * बीसवीं शताब्दी जैन गणित के अध्ययन के विकास की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 1908-1912 में महावीराचार्य कृत 'गणित सार संग्रह' के प्रकाश में आने से भारतीय गणित की शाखा 'जैन गणित' की ओर विश्व समुदाय का ध्यान आकृष्ट हुआ। मध्यप्रदेश में जबलपुर जिले के रीठी नामक छोटे से ग्राम में चैत्र शुक्ला तृतीया, संवत् 1986, तदनुसार 12 अप्रैल 1929 को समताभावी और सदाचारी सद्गृहस्थ श्री लक्ष्मणलाल सिंघई के यहाँ पांचवीं सन्तान के रूप में जब एक बालिका का जन्म हुआ तब घर और बाहर किसी को भी यह कल्पना तक नहीं थी कि एक दिन यह बालिका अगाध आगम ज्ञान प्राप्त करके कठेर तप की साधना करती हुई, स्व- पर कल्याण के पथ पर आरूढ़ अपनी पर्याय की उत्कृष्ट उपलब्धि अर्जित करेगी । प्रसिद्ध जैन विद्वान श्री नीरज जैन (सतना) एवं श्री निर्मल जैन (सतना) की सगी बहन सुमित्राजी ही दीक्षोपरान्त आर्यिका विशुद्धमतीजी बनीं। Jain Education International विदुषी आर्यिका पूज्य श्री विशुद्धमती माताजी ने 14 अगस्त 1964 को मोक्ष सप्तमी के दिन परम पूज्य आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज से आर्यिका दीक्षा प्राप्त की थी, फिर 25 वर्ष की सतत तपस्या के माध्यम से उन्होंने अपनी साधना का भव्य भवन बनाया। उसके उपरान्त 12 वर्ष की सल्लेखना लेकर कठोर साधना करते हुए उन्होंने अपने उस पुण्य भवन पर उत्तुंग शिखर का निर्माण किया जो अपने आप में एक अनोखा उदाहरण था। इन बारह वर्षों में क्रमश: एक एक वस्तु त्यागते हुए सन् 1998 के चातुर्मास से एक दिन के अन्तर से और सन् 2002 के चातुर्मास से दो दिन के अन्तर से आहार लेकर उन्होंने उत्कृष्ट समाधि - साधना का अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत किया । अन्त में केवल जल ही उनकी इस पर्याय का आधार था जिसे उन्होंने 16 जनवरी 2002 को जीवनपर्यन्त के लिये त्याग दिया और अंतिम छह दिवस माताजी ने निर्जल व्यतीत किये। अर्हत वचन 14 (23) 2002 For Private & Personal Use Only 111 www.jainelibrary.org

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