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अर्हत् वचन (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर)
टिप्पणी - 5
ध्यान एक यात्रा (अ) ज्ञात के उस पार
- डॉ. एन.एन. सचदेव*
'ध्यान' (Meditation) न केवल भारत, बल्कि यूरोप व अमेरीका में भी लोकप्रिय हो गया है। आज तनाव जीवन का एक अंग बन गया है। उससे मुक्ति पाने के लिये (आस्तिक तथा नास्तिक) किसी भी धर्म में विश्वास रखने वाले अथवा मत-मतान्तर से दूर रहने वाले लोगों ने इसे स्वीकार कर लिया है। 'ध्यान प्रणाली' सिखाना एक बड़ा व्यवसाय बन गया है। यह आय का इतना बड़ा स्रोत बन गया है कि इन लोगों की गिनती विश्व के गिने-चुने धनी वर्ग में आती है।
देवत्व की परिभाषा मानव समझ के परे हैं। इसी प्रकार ध्यान क्या है? इसे शब्दों में ढालना इतना सरल नहीं है। मैं इसे साधना मानता हूँ, यह अथाह है। इसके अनगिनत पहलू है, वास्तव में यह समझ के परे है।
भिन्न-भिन्न लोग अपनी-अपनी तरह से भिन्न-भिन्न प्रकार से समझते- समझाते हैं, जैसे प्राचीन काल के योगी तथा सूफी समाधि में पहुँच जाते थे, इसी तरह ध्यान भी मनुष्य को इस अवस्था में ले जाने का प्रयास है। मनोवैज्ञानिक भाषा में इसे सेल्फ हिप्नोटिज्म (Self Hypnotism) भी कहा जा सकता है। ऐसी अवस्था क्षण भर के लिये भी आ जाय तो उसे अनुभव तो किया जा सकता है परन्तु अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है।
ध्यान किसी उद्देश्य व वस्तु प्राप्ति का आधार नहीं हो सकता। अपने आपको जानने तथा समझने का माध्यम कहा जा सकता है। यह एक मनोवैज्ञानिक यात्रा है जो इस समझ और सूझबूझ के पार लगाने का प्रयास है और सांसारिक यात्राओं की भांति आनन्ददायक है तथा जीवन लक्ष्य को नगण्य कर देती है। यह स्वयं एकाकी सत्संग है। आस्तिक तथा देवत्व में विश्वासु लोगों के लिये अपने इष्ट देव से सीधा सम्पर्क करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जब कोई समाधि की अवस्था में पहुंच जाता है, तब ऐसा लगता है कि समय रुक गया है व अनन्त से जुड़ गया है। "मैं" की भावना लुप्त हो जाती है, देखने में तो चैतन्य अवस्था है, परन्तु वास्तव में पूर्ण जाग्रत नहीं है, यह कहना कठिन है कि कोई अन्तशक्ति जाग्रत हो जाती है। परन्तु यह अवस्था चरमोत्कर्ष आनन्द की उल्लास तरंगें उत्पन्न कर देती है, जिसकी कोई सीमा नहीं, कोई पर्याय नहीं।
उन्नीसवीं सदी के विश्व प्रसिद्ध उर्द कवि 'गालिब' ने इस अवस्था को इन शब्दों में ढाला
"हम वहाँ है, जहाँ से हमको भी
कुछ हमारी खबर नहीं आती" किसी वस्तु, ज्योति की लौ, बिन्दु शब्द अथवा मंत्र ध्यान को केन्द्रित करने में तथा अपने मन को बाह्य संसार से अलग - अलग, क्षणभर के लिये यादों से परे जाने व शून्य अवस्था में पहुँचने के लिये, अभ्यास, विश्वास तथा श्रद्धा की आवश्यकता है। जीवन में तनाव के साथ - साथ सहज जीवन आज के युग में संभव नहीं है। ध्यान, एक ऐसी कला है जिसके महत्व को झुठलाया नहीं जा सकता, इसलिये इसे ध्यान का प्रचार करने वाले व सिखाने वाले कैसे भी हों, चाहे पैसे के लिये हों, आज के समाज में उन्हें मान्यता देने में कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए। इस संदर्भ में देखा जाय तो इस मानव के हित में वे प्रशंसनीय भूमिका ही निभा रहे हैं।
अनुवादक - एल.एस. आचार्य प्राप्त : 02.07.2001
* देवलोक, न्यू पलासिया, इन्दौर - 452001
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अर्हत वचन, 14 (2-3), 2002
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