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8. पुस्तकें अलमारी में खड़ी रखें, एक दम लूंस-ठूस कर न रखें अन्यथा पुस्तकों को निकालने और रखने में असुविधा होगी। पुस्तकें रगड़ से फट सकती हैं, उनकी जिल्द उखड़ सकती है। 9. पुस्तकें आड़ी, एक के ऊपर एक न रखें क्योंकि बीच में से पुस्तक निकालने में असुविधा होगी। 10. अत्यन्त महत्वपूर्ण पुस्तकों को सुरक्षित रखने के लिये पृथक से मजबूत पुढे के बॉक्स बनाये जा सकते हैं। 11. ग्रन्थालयों में या उनके आस-पास खाद्य पदार्थ तथा चिकनाई वाले पदार्थ नहीं होना चाहिये। मंदिरों की पुस्तकें इन पदार्थों के कारण चूहे काट जाते हैं। 12. नीम के सूखे पत्ते अलमारियों में पुस्तकों के बीच बिछा कर पुस्तकों को दीमक, सफेद कीड़ों आदि से बचाया जा सकता है। 13. चन्दन के बुरादे की पोटली भी अलमारी में प्रत्येक खाने में पुस्तकों की सुरक्षा हेतु रखी जा सकती है। 14. पुस्तकों के उठाते- रखते एवं पढ़ते समय सावधानी रखें। अधिक मोटी पुस्तके पढ़ते/खोलते समय उन्हें दोनों ओर कोई सहारा दें ताकि उनकी जिल्द सुरक्षित रहे। लकड़ी के उपकरण इस हेतु बाजार में उपलब्ध हैं। 15. पुस्तकों पर जिल्द चढ़ाने से उनका जीवन दीर्घ हो जाता है।
संक्षेप में, ग्रन्थों की रचना बड़े कष्ट से की जाती है। एक मूर्ति के टूटने/नष्ट होने पर उस जैसी दूसरी मूर्ति बन सकती है। किन्तु एक प्राचीन ग्रंथ / पाण्डुलिपि नष्ट होने पर वैसा दूसरा ग्रंथ तैयार नहीं हो सकता। अत: इनकी यत्न पूर्वक जल - वायु- अग्नि, मूषक तथा चोरों से रक्षा करना चाहिये। कहा भी है -
कष्टेन लिखितं शास्त्रं, यत्नेन परिपालयेत। उदकानल चौरेभ्यो, मूषकेभ्यो हुताशनात्॥ तैलाद रक्षेज्जलाद् रक्षेद् रक्षैच्छिथिल बंधनात्।
मूर्ख हस्ते न दानव्यम् एवं वदति पुस्तकम्॥ 16. "श्रुत पंचमी" ज्ञान और ज्ञान के आराधकों के सम्मान का पर्व है। अत: जिन विद्वानों ने अनथक श्रम करके प्रतिकूल परिस्थितियों में रह कर भी ग्रन्थों का सम्पादन, अनुवादन, लेखन, संरक्षण आदि कार्य कर मां जिनवाणी की अपूर्व सेवा की है उन्हें आज सम्मानित पुरस्कृत किया जाना चाहिये अथवा जो सरस्वती सेवक अभावों का जीवन जी रहे हैं उन्हें आर्थिक सहयोग देकर उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहिये। 17. समाज में प्रतिवर्ष सैकड़ों पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं एवं गजरथ महोत्सवों में करोड़ों की धनराशि व्यय की जाती है उसका या उसमें से कुछ अंश का उपयोग आगमिक ग्रन्थों के प्रकाशनादि कार्यों पर व्यय करने का प्रावधान होना चाहिये। 18. हमारी समाज में न तो श्रेष्ठियों की कमी है और न उदारदानियों की, कमी है उन्हें सही मार्ग दर्शन की। साधु समाज अपने विवेक और प्रभाव का उपयोग कर जिनवाणी के संरक्षण एवं प्रसार की अगुआई कर सकते हैं। पूज्य श्री 108 उपाध्याय ज्ञानसागर जी का योगदान इस क्षेत्र में प्रशंसनीय है।
* पूर्व प्राचार्य प्राप्त : 22.5.01
नेहरू चौक, गली नं. 4, गंजबासोदा (जि. विदिशा)
अर्हत् वचन, 14 (2-3), 2002
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