________________
अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
टिप्पणी - 4 श्रुत पंचमी ऐसे मनायें
-लालचन्द्र जैन 'राकेश*
"श्रुत पंचमी" जैन संस्कृति का महापर्व है। तीर्थंकरों और गुरुओं के पर्व तो वर्ष में कई बार आते हैं किन्तु मां जिनवाणी का यह पर्व तो वर्ष में एक बार ही आता है तथा प्रतिवर्ष ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को मनाया जाता है। इसका सीधा सम्बन्ध श्रुतावतार के महनीय इतिहास से है। यह पर्व ज्ञान की आराधना का संदेश देता है, श्रुत के अवतरण, संरक्षण एवं संवर्द्धन की याद दिलाता है तथा हमारी सुप्त चेतना को जागृत करता है। संक्षेप में यह ज्ञान का पर्व है। अत: इसे हम "ज्ञान पंचमी' भी कह सकते है।
जैन संस्कृति में "श्रुत" को पूज्यता का पद प्राप्त है। इसे श्रुत देवी/श्रुत देवता या जिनवाणी माता कहते हैं। इसे रत्नोपाधि से अलंकृत किया गया है।
श्रुत का प्रभाव अनुपम है। श्रुत ज्ञान सम्यग्दर्शन का निमित्त है। इसके परिशीलन से पदार्थ के बोध के साथ ही हिताहित का ज्ञान भी प्राप्त होता है। हितानुबंधी ज्ञान से सन्मार्ग में प्रवृत्त हुआ व्यक्ति शाश्वतिक, निराकुल सुख को भी पा लेता है। सत्य तो यह है कि श्रुत देवी/श्रुत ज्ञान ही हमारा कल्याण करने वाला है, उसके आश्रय से ही केवलज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है। श्रुत ज्ञान का महत्व बतलाते हुये कहा गया है कि "ज्ञान की अपेक्षा श्रुत ज्ञान तथा केवल ज्ञान दोनों ही सदृश हैं परन्तु दोनों में अंतर यही है कि श्रुत ज्ञान परोक्ष है और केवल ज्ञान प्रत्यक्ष है।" पद्मनन्दी आचार्य के अनुसार "जो श्रुत की उपासना करते हैं, वे अरहंत की ही उपासना करते हैं क्योंकि श्रुत और आप्त में कुछ भी अंतर नहीं है इसलिये सरस्वती की पूजन साक्षात् केवली भगवान की पूजन है।"
किसी कवि ने ठीक कहा है, "जिनवाणी जिन सारखी।" शास्त्रों में श्रत की अपूर्व महिमा का गान करते हुये लिखा है कि -
श्रुते भक्तिः श्रुते भक्ति: श्रुते भक्ति सदास्तु मः। सज्जानमेव संसार वारणं मोक्ष कारणस्। जन्म - जरा - मृतु क्षय करै, हरै कुनय जड़रीति।
भव-सागर सौ ले तिरे, पूजौ जिन वच प्रीति।। श्रुत पंचमी ऐसे मनायें - ऐसे महापर्व पर हमारे क्या कर्तव्य / उत्तरदायित्व हो जाते हैं, उनका संक्षिप्त दिग्दर्शन ही इस आलेख का विषय है।
1. हमारे पूर्वज, पूर्वाचार्यों द्वारा लिखित जिनवाणी को ताड़पत्र/ भोजपत्र/कागज पर लिखकर / लिखवा कर जिनालयों में विराजमान करते रहे हैं। बड़े-बड़े शहरों से लेकर छोटे से छोटे सुदूरवर्ती ग्रामों के जिनालयों में भी उनकी पाण्डुलिपियां विद्यमान हैं, जिनमें हमारी संस्कृति, इतिहास एवं आचार - विचार की अमूल्य धरोहर सुरक्षित है। हमें चाहिये कि इस धरोहर की सुरक्षा एवं प्रचार - प्रसार के लिये इस पर्व पर हम कटिबद्ध हों। उनके पुराने वेष्टन बदल कर, प्रासुक करके, पुन: नवीन वेष्टनों में बांध कर, वेष्टन के बाहर ग्रंथ का नाम अंकित कर उन्हें सुरक्षित, सीलन रहित स्थान पर विराजमान करें।
2. कागज की पाण्डुलिपियों के दोनों ओर मजबूत कागज के पुढे लगायें तथा ताड़पत्रीय / भोजपत्रीय पाण्डुलिपियों को दोनों तरफ लकड़ी के पटिये (पटिये कुछ बड़े हों) लगा कर, वेष्टन में बांध कर अलग - अलग खानों में रखें।
अर्हत वचन. 14 (2-3). 2002
105
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org