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समय का रूप सपनों में बहुत भिन्न है। थोड़े से समय में घंटे, दिन और वर्ष बीत सकते हैं। बहुत लम्बा समझे जाना वाला सपना जो स्मृति में आता है वह अनेक घटनाओं वाला अनुभूत काल वास्तव में कुछ सेकंडों का ही होता है। प्रश्न उठता है कि नींद में इस काल के बीतने की गति क्या रहती है? अनुभूति के बावजूद यह अन्तर क्यों? एरिस्टॉटल, जोसेफ, प्लेटो, फ्रायड, आधुनिक विज्ञान और ह्यूम के अनुसार दिन के अनुभवों और अतृप्त कामनाओं के कारण सपने आते हैं। ये ना तो सत्य होते हैं ना ही सत्य काल की अनुभूति देते हैं। कई बार अपने सांकेतिक संप्रेषण प्रभाव दर्शाते हैं किन्तु उनका स्वप्नकालीन समय से संबंध न होकर सत्य समय से ही संबंध रहता है।
बर्लिन के प्रो. डीटल केम्पर ने समय की पुनरावृत्ति सूर्य पर आधारित दैनिक क्रिया दर्शाते हुए समय के मशीनी पैमानों के बाबत बतलाया।
दिल्ली के प्रो. जे. पी. एस. ओबेराय ने समय को 'काल' ध्वंसक के रूप में दर्शाया जो सब कुछ निगलता, पचाता रहा है। इंडस्ट्री की दृष्टि में इसका वर्णन उन्होंने समय का किस-किस दिशा में उपयोग संभव है और उत्पादन पर प्रभाव, इसे ही चर्चा का विषय रखा।
जर्मनी के रूडोल्फ वेन्डार्फ ने समय के इतिहास पक्ष को प्रस्तुत किया कि कब कैसे - कैसे समय रहे? उन्होंने समय को रेखा रूप बताते हुए 'ट्रेडिशनल समय' को बताया कि परम्पराओं का भाव कैसा होता है। कभी वह समय का खंड छोटा लगता है और कभी लम्बा। गावों का समय लम्बा और शहरों का समय भागदौड़ की व्यस्तताओं में छोटा। कार्य उत्पादन पर भी समय का प्रभाव पड़ता है। गरीबों का वही काल खंड दु:ख में लम्बा और अमीरों का सुख में छोटा लगता है। ये आज ही नहीं, संस्कृतियों और सभ्यताओं में स्पष्ट दिखता है। जेना ने इस रहस्य को समझते हुए समय को भिन्न-भिन्न अर्थ दिये। गोइथे ने इसीलिये घड़ी के बनाये जाने को सराहा।
मुम्बई के अशोक रानाडे ने समय की संगीत के स्वरों से तुलना की। समय सात स्वरों सा स्वयं को बदलता रहता है और स्वर से ही ताल और लय बदलते हुए भी समय के प्रभाव में ही रहे हैं। प्रात: में गाई जाने वाली रागों और सायं में गाई जाने वाली रागों में समय भिन्न होकर भी प्रभाव दर्शाता है। राग समय से बदलकर उसकी पहचान बना बैठा है।
पूना से जयंत नार्लीकर ने समय को इलेक्ट्रो डायनामिक्स और कास्मोलॉजी से जोड़कर बतलाया कि ये पूरा ब्रह्माण्ड इलेक्ट्रान्स से भरा पड़ा है। ये अचानक सारे बदलाव इसी कारण से होते हैं। ठहराव और गति, दोनों का रहस्य बतलाते हुए उन्होंने ब्रह्माण्ड के फैलाव का रहस्य बतलाया। उसमें समय का क्या महत्व है? यदि ब्रह्माण्ड फैलने की जगह सिकुड़ने लगे तब क्या समय की दिशा लौटाई जा सकती है? (*रिवर्स गीयर में) समय तो निरन्तर आगे बढ़ने की घटना लगता है। जिस प्रकार जीवाणुओं में वृद्ध कोशिका बंटकर बेबी बन जाती है और समय उनमें लौट आता है पर क्या वास्तव में समय लौटा है? नहीं। क्योंकि हर बात अलग है, भले अनुभव पुन: वापस लौटे।
फ्रांस एम्बेसी के श्री गिल्बर्ट डलगेलियन ने बतलाया कि समय की अभिव्यक्ति कार्य के निष्पादन से जानी जाती है। कुछ को हम कहते हैं 'हो गया', कुछ 'होगा' और कुछ 'है'। यह सब तुलनात्मक होकर भी मात्र वर्तमान की अनुभूति में ही है अन्यथा नहीं। समय होरोल्ड वाइनरिख की भाषा में भ्रम जाल सा रह गया है।
अर्हत् वचन, 14 (2 - 3), 2002
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