Book Title: Arhat Vachan 2002 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 53
________________ अर्हत् वच कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर af-14, 3ich 2-3, 2002, 51-68 बीसवीं शताब्दी में जैन गणित के अध्ययन की प्रगति . डॉ. अनुपम जैन * बीसवीं शताब्दी सूचना एवं संचार क्रांति की सदी रही। कम्प्यूटर के आविष्कार ने सूचनाओं के संकलन, संग्रहण एवं प्रस्तुति को सरल, सहज एवं सुविधापूर्ण बना दिया । इंटरनेट के माध्यम से सूचनाओं के सम्प्रेषण की विधा को नया आयाम मिला है। ज्ञान अथाह भंडार आज इन्टरनेट पर उपलब्ध है। इस श्रृंखला में विभिन्न धर्मावलम्बियों द्वारा अपनी परम्परा के साहित्य के अनेक दृष्टियों से मूल्यांकन के प्रयास किये गये हैं। जैन साहित्य भी बहुआयामी है। विषयानुसार विभाजन के क्रम में सम्पूर्ण जैन साहित्य को 4 वर्गों में पारम्परिक रीति से विभाजित किया जाता है। ' 1. प्रथमानुयोग : तीर्थंकरों एवं अन्य महापुरुषों के जीवनवृत्त, पूर्व भव एवं अन्य कथा साहित्य 2. करणानुयोग : 3. चरणानुयोग : 4. द्रव्यानुयोग : आत्मा, परमात्मा एवं अन्य आध्यात्मिक साहित्य लोक के स्वरूप, भूगोल, खगोल, गणित एवं कर्म सिद्धान्त विषयक साहित्य श्रावकों एवं मुनियों के आचरण विषयक साहित्य उक्त विभाजन के अन्तर्गत करणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग के ग्रन्थों में गणितज्ञों की रूचि की यथेष्ट सामग्री उपलब्ध है। जैनाचार्यों ने जनकल्याण की भावना से अनुप्राणित होकर गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण आदि लोकरुचि के विषयों पर स्वतंत्र ग्रन्थों का भी सृजन किया है। 1908 में David Eugen Smith द्वारा 4th International Conference of Mathematicians, Rome (6-11 अप्रैल 1908) में The Ganita Sara Samgraha of Mahāvīrācārya 2 शीर्षक शोधालेख प्रस्तुत किये जाने एवं बाद में प्रो. एम. रंगाचार्य द्वारा 1912 में गणित सार संग्रह को अंग्रेजी अनुवाद एवं टिप्पणियों सहित प्रकाशित किये जाने से विश्व समुदाय का ध्यान भारतीय गणित की इस शाखा की ओर आकृष्ट हुआ । यहाँ यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि 1899 में महान जैनाचार्य श्रीधर (799 ई.) कृत पाटीगणितसार (त्रिंशतिका) के मूल पाठ का सुधाकर द्विवेदी द्वारा प्रकाशन किया गया था किन्तु उसका मंगलाचरण परिवर्तित कर दिये जाने के कारण यह कृति जैन कृति के रूप में अपनी पहचान नहीं बना पाई थी। 1910 में द्विवेदी द्वारा प्रकाशित गणित का इतिहास में भी जैन गणित के साथ न्याय नहीं हो सका। Jain Education International भारतीय गणित के समर्पित अध्येता प्रो. विभूतिभूषण दत्त, जिन्होंने जीवन के उत्तरार्द्ध में स्वामी विद्यारण्य के रूप में पुष्कर में संन्यस्त जीवन व्यतीत किया, ने हिन्दू गणित के रूप में जैन गणित का व्यवस्थित अध्ययन किया। आपने हिन्दू शब्द को अत्यन्त व्यापक अर्थ में लेते हुए इसमें जैन, बौद्ध एवं वैदिक तीनों परम्पराओं के ग्रन्थों का अध्ययन किया है। दत्त द्वारा 1928 1929 1930 1935 1936 में लिखित लेख पठनीय हैं। प्रो. अवधेशनारायण सिंह के साथ मिलकर लिखी गई 2 खण्डों में प्रकाशित 'आपकी कृति History of Hindu Mathematics में उस समय तक प्रकाश में आ चुकी जैन गणित विषयक महत्वपूर्ण सामग्री समाहित है। * गणित विभाग, होल्कर स्वशासी विज्ञान महाविद्यालय, इन्दौर - 452017। निवास ज्ञानछाया, डी- 14, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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