Book Title: Arhat Vachan 2002 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 18
________________ त्रिशतिका के प्रारंभिक श्लोकों में इन परिकर्मों की चर्चा की है। संकलन एवं व्यकलन के क्रम में उन्होंने श्रेणियों के पदों को जोड़ने एवं घटाने की चर्चा की है। हम अब शेष 6 परिकर्मों की चर्चा करेंगे। गुणन श्रीधराचार्य ने गुणन की चार विधियों का वर्णन किया है - 1. कपाट- सन्धि 2. तत्स्थ 3. रूपविभाग 4. स्थानविभाग कपाट सन्धि श्रीधराचार्य के अनुसार गुणक के नीचे कपाट सन्धि' की भाँति गुण्य को रखकर विलोम अथवा अनुलोम विधि के अनुसार गुणक को एक एक स्थान हटा हटा कर क्रम से गुणा करना कपाट सन्धि विधि है। 2 - इस विधि की दो विशेषताएँ हैं 1. गुण्य और गुणकार के सापेक्ष स्थान और 2. गुण्य के अंकों का मिटाना और उनके स्थान में गुणनफल के अंकों का स्थापन पहली विशेषता के कारण इस विधि का नाम कपाट संधि पड़ा और दूसरी विशेषता के कारण गणित के ग्रन्थों में मिलने वाले हनन, वध इत्यादि शब्दों को आविर्भाव हुआ । कपाट- सन्धि की क्रम और उत्क्रम विधि को समझने के लिये निम्नलिखित उदाहरण सहायक हैं। क्रम (अनुलोम विधि) - उदाहरण 135 को 12 से गुणा करो पहले उन संख्याओं को पाटी पर निम्नलिखित प्रकार से लिखते हैं 16 - गुणक गुण्य इसके पश्चात गुण्य के इकाई वाले अंक हैं। इस प्रकार 5 x 2 = 100 को 2 के बायीं ओर ले जाते हैं। इसके बाद 5 x 1 5; इसमें ( आगे ले गये अंक) 1 को जोड़ने पर 6 प्राप्त होता है (पाटी पर लिखे हुए) 5 की अब आवश्यकता न होने से उसे मिटा देते हैं और उसके स्थान में प्राप्त 6 लिख देते हैं। इस प्रकार पाटी पर अब निम्नलिखित संख्याएँ होती हैं Jain Education International - = 12 135 (5) को गुणक के अंकों से गुणा करते नीचे लिखते हैं और 1 को एक स्थान 12 1360 अब गुणक को एक स्थान बायीं ओर हटाते हैं। 12 1360 अब 3 को गुणक के अंकों से गुणा करते हैं। इसका विवरण यह है - 3x अर्हत् वचन, 14 (23), 2002 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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