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संख्यात व असंख्यात नारकी अंतिम समय में कदाचित पाए जाते हैं। भव्यसिद्धिक और अचक्षुदर्शनी चरम समय में कथंचित् कृति, कथंचित् नोकृति और कथंचित् अव्यक्तव्य हैं, क्योंकि इनके समय के सान्तरता पायी जाती है। अचरम समय में नियम से कृति है। 4. संचयानुगम - इसमें सतप्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम, इन आठ अनुगमों/ मिलान/ मेल या ज्ञान पर विचार किया जाता है। प्रत्येक जीव की कृति, नोकृति और अव्यक्तव्य का संचय होता है। उनके विषय को जानना यही अनुगम है। त्रस और स्थावर दोनों ही प्रकार के जीवों की गणन संख्यात्, असंख्यात, अनन्त के साथ-साथ उनकी जघन्य कृति और उत्कर्ष कृति पर भी विचार किया जाता है। या जिसके द्वारा जीवादि पदार्थ जाने जाते हैं, ऐसी पद मीमांसा भी गणन
गणन कृति एक ऐसी कृति है, जिससे समस्त राशियों का प्रमाण भी निकल आता है, उसका सांगोपांग विवेचन इस बात को भी प्रमाणित करता है कि कौन से जीव कितने हैं, उनका कितना समय है, वे किस की अपेक्षा अधिक हैं और किसी की अपेक्षा कम हैं, इत्यादि गणनकृति की पद्धति है। समस्त वस्तु स्थिति के लेखे-जोखे के लिये ये ही कृति प्रामाणिक भी है।
गणनकृति में उन ग्रंथों को महत्व दिया जाता है जो गणित से संबंधित होती हैं, जिनमें तीनों लोकों के विषय का समावेश होता है। षट्खंडागम, कषायपाहुड एवं इनकी टीकायें जीव द्वारा कृत कर्मों का वास्तविक मूल्यांकन करती हैं। प्रत्येक जीव का प्रमाण इनकी विशेषता है, इनमें जहाँ सत् की अपेक्षा एक है, वहीं विधि-निषेध आदि से दो, द्रव्य, गुण एवं पर्याय से तीन, बंध, मुक्त, बन्धकारण और मोक्षकारण की अपेक्षा चार, शरीर की औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और परिणामिक दृष्टि पाँच संख्या को निर्धारित करती है। जीव, पुद्गलादि छह द्रव्य, मुक्त, संसारी, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल आदि से सात तत्व, भव्य, अभव्य, मुक्त, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल की अपेक्षा आठ, नौ पदार्थ से नौ इत्यादि वस्तु की अवस्थाएँ ही नहीं, अपित प्रत्येक की जघन्य, उत्कृष्ट आदि स्थिति भी गणनकृति का विषय है।
तिलोयपण्णत्ति, तिलोयसार आदि ग्रंथ तीन लोक की सम्पूर्ण स्थिति गणित पक्ष के आधार पर करते हैं। चन्द्र की परिधि चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्य के गुणों का गणन सूर्यप्रज्ञप्ति आदि में है। अष्टांग आयुर्विज्ञान/ शरीर विज्ञान का संपूर्ण पक्ष प्राणावाय में है। इस तरह प्रथमानुयोग में वर्णित त्रिषष्टि शलाका पुरुषों के स्थिति, काल, चर्या-विहार, मोक्ष आदि की गणन पद्धति गणनकृति है। छह काल, कुलकर, कल्पयुग चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नारायण - प्रतिनारायण आदि की निश्चित संख्या भी गणनकृति का रहस्य है।
इस तरह चौसठ अक्षर, अक्षर संयोग, जो समस्त अंग ग्रन्थों का प्रमाण बतलाता है। एक लाख चौरासी हजार सौ सड़सठ कोड़ाकोड़ी चवालीस लाख तिहत्तर सौ सत्तर करोड़, पंचानवें लाख इक्यावन हजार छह सौ पन्द्रह अक्षर संयोग की दृष्टि से अंग आगमों का प्रमाण गणनकृति है। इनके पद एक सौ बारह करोड़ तेरासी लाख अट्ठावन हजार पाँच पद मात्र हैं। मध्यम पद - 16348307888 के संयोगाक्षरों से है। अर्थपद एवं प्रमाणपद का जितना भी गणन है, वह भी गणनकृति है। इत्यादि समस्त संघात, प्रतिवृत्ति, अनुयोगद्वार आदि अंगश्रुत की संख्या गणनकृति है। प्राप्त ; 22.09.2002
अर्हत् वचन, 14(2 -3), 2002
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