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अर्हत् वच
कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
वर्ष - 14,
अंक - 2 - 3, 2002, 35-39
जैन दर्शन मान्य काल
जैन परम्परा में काल के संदर्भ में दो अवधारणाएं प्राप्त हैं
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पांच अस्तिकाय के साथ जब 'काल- द्रव्य' को योजित कर दिया जाता है तब उन्हें ही षड्द्रव्य कहा जाता है।' विश्व व्यवस्था में कालद्रव्य का महत्वपूर्ण स्थान है।
द्रव्य
D समणी मंगलप्रज्ञा *
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(1) प्रथम अवधारणा के अनुसार काल स्वतंत्र द्रव्य नहीं है, वह जीव और अजीव की पर्यायमात्र है। 2 इस मान्यता के अनुसार जीव एवं अजीव द्रव्य के परिणमन को ही उपचार काल माना जाता है। वस्तुतः जीव और अजीव ही काल द्रव्य है। काल की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। पांतजलयोगसूत्र में भी काल की वास्तविक सत्ता नहीं मानी गयी है। काल वस्तुगत सत्य नहीं है। बुद्धिनिर्मित तथा शब्दज्ञानानुपाती है। व्युत्थितदृष्टि वाले व्यक्तियों को वस्तु स्वरूप की तरह अवभासित होता है। इसका यही भावार्थ है कि काल का व्यावहारिक अस्तित्व है, तात्विक अस्तित्व नहीं है।
(2) दूसरी अवधारणा के अनुसार काल स्वतंत्र द्रव्य है। अद्धासमय के रूप में उसका पृथक् उल्लेख है। यद्यपि काल को स्वतंत्र द्रव्य मानने वालों ने भी उसको अस्तिकाय नहीं माना है । सर्वत्र धर्म अधर्म आदि पांच अस्तिकायों का ही उल्लेख प्राप्त होता है। 5
श्वेताम्बर परम्परा में काल की दोनों प्रकार की अवधारणाओं का उल्लेख है किन्तु दिगम्बर परम्परा में काल को स्वतंत्र द्रव्य मानने वाली अवधारणा का ही उल्लेख है ।
यद्यपि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं में काल को स्वतंत्र द्रव्य माना गया है किन्तु काल के स्वरूप के सम्बन्ध में उनमें परस्पर भिन्नता है। श्वेताम्बर परम्परा काल के अणु नहीं मानती तथा व्यावहारिक काल को समयक्षेत्रवर्ती तथा नैश्चयिक काल को लोक अलोक प्रमाण मानती है।" दिगम्बर परम्परा के अनुसार 'काल' लोकव्यापी और अणु रूप है। कालाणु असंख्य है, लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक- एक कालाणु स्थित है। 7
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पं. दलसुख मालवणिया ने काल को स्वतंत्र द्रव्य न मानने वाली अवधारणा को प्राचीन माना है। उनका कहना है कि "काल को पृथक् नहीं मानने का पक्ष प्राचीन मालूम होता है, क्योंकि लोक क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों के मत में एक ही है कि लोक पंचास्तिकायमय है। कहीं यह उत्तर नहीं देखा गया कि लोक
द्रव्यात्मक है। अतएव मानना पड़ता है कि जैनदर्शन में काल को पृथक् मानने की परम्परा उतनी प्राचीन नहीं। यही कारण है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों में काल के स्वरूप के विषय में मतभेद भी देखा जाता है। "8
आचार्य महाप्रज्ञ इन दोनों अवधारणाओं की संगति अनेकान्त के आधार पर करते हैं। उनका मानना है कि "काल छह द्रव्यों में एक द्रव्य भी है और जीव- अजीव की पर्याय भी है। ये दोनों कथन सापेक्ष हैं, विरोधी नहीं। निश्चयदृष्टि में काल जीव अजीव की पर्याय है और व्यवहार दृष्टि में वह द्रव्य है। उसे द्रव्य मानने का कारण उसकी उपयोगिता है। वह परिणमन का हेतु है, यही उसका उपकार है। इसी कारण वह द्रव्य माना जाता है। 10
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* लेखिका तेरापंथ श्वेताम्बर जैन धर्मसंघ के आचार्य श्री महाप्रज्ञजी की आज्ञानुवर्तनी है। निदेशक- महादेवलाल सरावगी अनेकान्त शोधपीठ, जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूँ (राजस्थान )
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