Book Title: Arhat Vachan 2002 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 43
________________ वर्ष - 14, अंक-2-3, 2002, 41-50 अर्हत वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर) काल विषयक दृष्टिकोण .ब्र. (डॉ.) स्नेहरानी जैन* ABBEBASRAEBAR काल सभी भारतीय धर्मों में अपना विशेष स्थान रखता है। किसी ने इसे समय कहा है, किसी ने चक्र। किसी ने मृत्यु, किसी ने यम। जैनधर्म में इसे विश्व के मूल छह द्रव्यों में से एक माना है जो स्वयं तो वर्तना करता ही है, जिस भी द्रव्य के सम्पर्क में आता है उसमें भी वर्तना लाता है। इस हेतु यह बहुप्रदेशी कहा गया है और समूचा एक द्रव्य भी। पूरा ब्रह्माण्ड इसके प्रदेशों, कालाणुओं से ठसाठस भरा है, जो परमाणु में परिवर्तन लाते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में कहा है - परमाणु प्रचलनायत: समय: इसकी कुछ विशेषतायें हैं। द्रव्य होने से यह अविनाशी है। इसका न कोई आदि है न अंत। यह निरन्तर परिवर्तनशील है। यही इसकी निरन्तरता है किन्तु यह वर्तना की सर्पिणी रेखा मानी गई है जो आगे बढ़ती है। ना थमती है, ना पलट सकती है, ना ही उछल सकती है। यह दो प्रकार का अस्तित्व रखती है। व्यवहार में वर्तना दिखलाते इसे परिवर्तन के कारण खंडों में नापा जा सकता है तथा उसका अस्तित्व इकाई स्वरूप 'समय' है जो अति सूक्ष्म 'वर्तमान' है। इस वर्तमान से पूर्व 'अनादि भूत' और आगामी 'अनंत भविष्य' है, द्रव्य रूप यह 'कालाणु' है जो प्रति समय परिवर्तनशील है। यह कालाणु स्वतंत्र है फिर भी प्रभावी है। न जुड़ता है और न स्थान छोड़ता है। न बाधा करता है, न प्राण हरता है। अदृश्य होने के कारण यह बहुत भ्रांतियों से देखा जाता है। इन भ्रांतियों की तुलना में इसके स्वरूप को जैनधर्म किस प्रकार प्रस्तुत करता है, यह हमें देखना है। लगभग 11 वर्ष पूर्व मेक्सम्यूलर भवन, मुम्बई के तत्वावधान में टाटा इन्स्टीट्यूट, टाईटन घड़ी, USIS फ्रांस, जापान और स्विटजरलैण्ड कन्सुलेटों के सहयोग से काल (Time = समय) के ऊपर एक कांफ्रेंस आयोजित की गई थी जिसमें विश्व के 30 विद्वानों, वैज्ञानिकों तथा दर्शनशास्त्रियों ने भाग लिया और अपने- अपने दृष्टिकोण दिये। भारतीय दृष्टिकोण भी लाये गये जो प्रभावी रहे। हमारे पाठकों के अवलोकनार्थ प्रस्तुत दृष्टिकोणों को यहाँ अति सारांश में प्रस्तुत करने का हमारा उद्देश्य है। छह दिन चलने वाली उस कांफ्रेंस में 25 पत्र प्रस्तुतियाँ रहीं जो सारांश में इस प्रकार हैं - सर्वप्रथम श्री जे. जे. भाभा ने उद्घाटन भाषण में समय की मानसिक अनुभूति पर विचार प्रस्तुत करते हुए बताया कि समय न तो कोई 'अस्ति' है ना ही 'अनुभव' । अनुभव के लिये काल आवश्यक है (कदाचित वे वर्तना को लक्ष्य कर रहे थे। उनकी दृष्टि में आकाश और काल परस्पर पर्यायवाची शब्द लगे। जैन मान्यतानुसार ये दोनों ही दो अलग-अलग स्वतंत्र द्रव्य हैं, अविनाशी हैं। एक रोचक बात उन्होंने कही - 'काल के साथ जीवन की इच्छा ही अमरता है। बच्चे अपने आप नहीं आ जाते। आप उन्हें शरीर दे सकते हैं, किन्तु विचार नहीं। जीवन स्वयं को कभी नहीं दोहराता, ना ही बीते क्षणों से बात की जा सकती है। किसी भी वस्तु का काल के बिना अस्तित्व संभव नहीं विषय प्रस्तुत करते हुए डॉ. वीगेन्ड कन्जाकी ने दो ज्वलंत प्रश्न उठाये - 'समय को कैसे नियंत्रित कर सकते हैं?', उसकी मात्रा/पैमाना कैसे निर्धारित हो।?' हमें भलीभाँति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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