Book Title: Arhat Vachan 2002 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 38
________________ काल परमाणु 12 भगवती सूत्र में चार प्रकार के परमाणुओं का उल्लेख हुआ है।" यद्यपि यह उल्लेख द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के संदर्भ में हुआ है। जैसे कि आगम साहित्य की शैली है वह वस्तु की व्याख्या द्रव्य, क्षेत्र आदि के माध्यम से करता है, उदाहरण स्वरूप हम पंचास्तिकाय का संदर्भ ले सकते हैं।" किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में परमाणु के प्रकार पुद्गल से जुड़े हुए नहीं है अर्थात् पौद्गलिक परमाणु की द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के आधार पर व्याख्या नहीं की जा रही है अपितु द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के परमाणु बताए जा रहे हैं। द्रव्यरूप परमाणु को द्रव्य परमाणु, आकाशप्रदेश को क्षेत्र परमाणु समय को कालपरमाणु एवं भावपरमाणु को पुद्गल का परमाणु माना गया है। 13 प्रस्तुत प्रसंग में विशेष मननीय काल परमाणु है। भगवती टीका में समय को काल परमाणु कहा है, जैसा कि हमने ऊपर उल्लेख किया है। जैन दर्शन के अनुसार काल के अंतिम अविभाज्य भाग को समय कहा जाता है 14 जिसे जैनेतर दर्शनों में क्षण कहा गया है। 15 क्षण और समय ये दोनों शब्द एक ही भाव को प्रकट कर रहे हैं उनको परस्पर पर्यायवाची माना जा सकता है। श्वेताम्बर परम्परा में काल को पर्याय तथा स्वतंत्र द्रव्य रूप में मानने की अवधारणा है। भगवती टीका में समय को काल परमाणु कहा है। 15 जबकि दिगम्बर परम्परा में समय को कालाणु की पर्याय कहा गया है।" द्रव्यानुयोगतर्कणा में समय के आधार को कालाणु कहा गया है। क - - काल का ऊर्ध्वप्रचय श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं में काल के अस्तित्व को तो स्वीकार किया गया है किन्तु उसे अस्तिकाय नहीं माना है। अस्तिकाय वही हो सकता है जिसका स्कन्ध बन सके। काल के अतीत समय नष्ट हो जाते हैं। अनागत समय अनुत्पन्न होते हैं, इसलिए उसका स्कन्ध नहीं बनता। वर्तमान समय एक होता है, इसलिए उसका तिर्यक् प्रचय (तिरछा फैलाव ) नहीं होता। काल का स्कन्ध या तिर्यक् प्रचय नहीं होता, इसलिए वह अस्तिकाय नहीं है। 18 काल की पूर्व एवं अपर पर्याय में ऊर्ध्वताप्रचय होता है। काल के प्रदेश नहीं होते इसलिए उसके तिर्यक् प्रचय नहीं होता। २० - - 36 - "दिगम्बर परम्परा के अनुसार कालाणुओं की संख्या लोकाकाश के तुल्य है। आकाश के एक- एक प्रदेश पर एक- एक कालाणु अवस्थित है। कालशक्ति और व्यक्ति की अपेक्षा एक प्रदेशवाला है। इसलिए इसके तिर्यक्- प्रचय नहीं होता। धर्म आदि पांच द्रव्य के तिर्यक्प्रचय क्षेत्र की अपेक्षा से होता है और ऊर्ध्व प्रचय काल की अपेक्षा से होता है। उनके प्रदेश समूह होता है, इसलिए वे फैलते हैं और काल के निमित्त से उनमें पौर्वापर्य या क्रमानुगत प्रसार होता है। समयों का प्रचय जो है वही काल द्रव्य का ऊर्ध्व प्रचय है। 21 - Jain Education International आगम साहित्य में काल को अस्तिकाय नहीं माना गया है। क्यों नहीं माना गया है इसका उल्लेख नहीं है। यह आगम की शैलीगत विशेषता है कि वह तत्व के निरूपण में तर्क का सहारा नहीं लेता। उत्तरकालीन जैन साहित्य को क्यों का भी उत्तर देना था अतः उन्हें अनिवार्यता से हेतु का अवलम्बन लेना पड़ा। काल के विभाग काल के समय, आवलिका, मुहूर्त, दिवस आदि से लेकर पुद्गलपरिवर्त तक अनेक विभाग किये गये हैं। 22 इन विभागों के अतिरिक्त भी काल के अन्य प्रकार भी उपलब्ध हैं। स्थानांग एवं भगवती में काल को चार प्रकार का माना गया है. - प्रमाणकाल, यथायुनिर्वृत्तिकाल, अर्हत् वचन, 14 (23), 2002 - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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