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समझाया गया है। शास्त्रों में तो अनेक गुना विस्तार से लिखा गया है, जो कि साधक को उलझन में डाल देता है। परम पूज्य दादाश्री ने, जितना आत्मार्थी के मोक्ष मार्ग में आवश्यक है, उतने को ही विशेष महत्व देकर खूब ही सरल भाषा में समझाकर क्रियाकारी बना दिया है।
पूज्य दादाश्री ने कितनी ही जगह पर आत्मा को ज्ञाता-दृष्टा कहा है तो कितनी ही जगह पर प्रज्ञा को। यथार्थरूप से तो जब तक केवलज्ञान नहीं हुआ है, तब तक आत्मा के रिप्रेजेन्टेटिव के रूप में प्रज्ञा ही ज्ञातादृष्टा रहती है और अंत में केवलज्ञान हो जाने के बाद तो आत्मा स्वंय पूरे ब्रह्मांड के प्रत्येक ज्ञेय का प्रकाशक बन जाता है!
कितनी ही बातें, उदाहरण के तौर पर प्रज्ञा की बात बार-बार आती है, तब वह पुनरुक्ति जैसा भासित होता है, लेकिन ऐसा नहीं है। हर बार अधिक सूक्ष्मतावाला विवरण होता है। जैसे कि शरीर शास्त्र (एनाटॉमि) छठी कक्षा में आता है, दसवीं में आता है, बारहवीं में आता है या फिर मेडिकल में भी आता है। विषय और उसकी बेसिक बातें सभी में होती हैं लेकिन उसकी सूक्ष्मता हर बार अलग-अलग होती है।
जब मूल सिद्धांत अनुभव गोचर हो जाता है तब वाणी या शब्दों की भिन्नता उसमें कहीं भी बाधक नहीं रहती। सर्कल के सेन्टर में आए हुए
को किसी के साथ कोई मतभेद नहीं पड़ता और उसे तो सारा जैसा है वैसा दिखाई देता है, इसलिए वहाँ पर जुदाई रहती ही नहीं।
कई बार संपूज्य दादाश्री की अति-अति गहन बातें पढ़कर महात्मा या मुमुक्षु जरा डिप्रेस हो जाते हैं कि इसे तो कभी भी प्राप्त नहीं किया जा सकता! लेकिन वैसा नहीं होगा। दादाश्री तो हमेशा कहते थे कि, 'मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ उसे आपको मात्र समझ लेना है, उसे आचरण में लाने का प्रयत्न करने के पीछे नहीं लगना है। उसके लिए तो वापस नया अहंकार खड़ा करना पड़ेगा। मात्र बात को समझते ही रहो, आचरण में अपने आप आएगा। लेकिन यदि नहीं समझे हो तो आगे किस तरह बढ़ पाओगे? मात्र समझते ही रहो और दादा भगवान से शक्तियाँ माँगो और निश्चय करो कि अक्रम विज्ञान यथार्थ रूप से संपूर्ण सर्वांग रूप से समझना ही है! बस इतनी
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