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पूज्य दादाश्री की वाणी सहज रूप से निमित्ताधीन निकलती थी । प्रत्यक्ष में हर किसी को यथार्थ रूप से समझ में आ जाती है लेकिन बाद में उसे ग्रंथ में संकलित करना कठिन हो जाता है और उससे भी अधिक कठिन हो जाता है सुज्ञ पाठकों को यथार्थ रूप से समझ में आना ! कितनी ही बार अर्थांतर हो जाने की वजह से दिशा चूकी जा सकती है या फिर दिशामूढ़ हो सकते हैं। उदाहरण के तौर पर शास्त्र में पढ़ा हो कि 'जा, तेरी मम्मी को बुला ला ।' अब यहाँ पर कौन किसकी मम्मी के लिए कह रहा है, वह रेफरन्स (संदर्भ) पाठक को अपने आप समझना है । उसमें खुद की पत्नी को बुलाने का भी हो सकता है या दूसरे की पत्नी को भी ! यदि गलतफहमी हो जाए तो?
यों तो आत्म तत्व या विश्व के सनातन तत्व अवर्णनीय और अवक्तव्य हैं। ज्ञानीपुरुष दादाश्री बहुत - बहुत ऊचाईंयों से नीचे उतरकर, उन्हें शब्दों में लाकर हमें समझाते हैं। जो 'दृष्टि' की बात है, वह 'दृष्टि' से ही प्राप्त हो सकती है, न कि शब्दों से । 'मूल दृष्टि' से जिस आत्म सम्मुखता को प्राप्त करने की बात है, वह शब्दों में किस तरह समा सकती है? वह तो जिन-जिन महा-महा पुण्यात्माओं ने परम पूज्य दादाश्री का अक्रम ज्ञान प्राप्त किया है, प्रज्ञा जागृत होने के कारण उन्हें वह पढ़ते ही समझ में आ जाता है। इसके बावजूद भी कितनी ही गुह्य बातें ऐसी हैं जो समकिती महात्माओं को भी समझ में न आएँ या फिर कहीं पर विरोधाभास भासित होता है। वास्तव में ज्ञानी का एक भी शब्द कभी भी विरोधाभासी नहीं होता । इसलिए उन शब्दों का अनादर मत करना । उसे समझने के लिए उनके द्वारा ऑथोराइज्ड पर्सन से स्पष्टीकरण प्राप्त कर लेना चाहिए या फिर पेन्डिंग रखना। जब खुद उस श्रेणी तक पहुँचेगा, तब अपने आप समझ में आ जाएगा!
उदाहरण के तौर पर रेल्वे स्टेशन या रेल्वे प्लेटफॉर्म दो शब्दों का अलग-अलग जगह पर उपयोग किया होता है । जो नहीं जानता है, उसे द्विधा हो जाती है और जो जानता है वह समझ जाता है कि एक ही चीज़ है! कई बार संपूज्य दादाश्री प्लेटफॉर्म की बात कर रहे होते हैं तो शुरुआत
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