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पाठ
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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पउमचरिउ
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सन्धि - 27
27.14
घत्ता
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( व्यक्तियों के द्वारा ) ( यदि ) प्रहार किया गया ( है ), (तो) अधिक अच्छा (है), (यदि) तप का आचरण किया गया ( है ), (तो) (भी) अधिक अच्छा (है), (यदि) हालाहल विष ( पिया गया है), (तो) (भी) अधिक अच्छा (है), मरना (भी) अधिक अच्छा (है), गहन वन में जाकर टिके हुए ( होना) (भी) अधिक अच्छा (है), किन्तु पल भर ( भी ) मूर्ख - जन में ठहरे हुए ( रहना) (अच्छा ) नहीं ( है ) ।
27.15
(1 ) तब तीनों ही (राम, लक्ष्मण व सीता ) ( उस) जन ( - समूह ) में अतिपीड़ा को उत्पन्न करते हुए (और) इस ( उपर्युक्त ) प्रकार से कहते हुए ( 2 ) दिन के अन्तिम प्रहर में बाहर निकल गए (और) हाथी की तरह (वे) घने वन को चले गये । (3) ज्यों ही विशाल वन में प्रवेश करते हुए (वे) (आगे बढ़े), त्यों ही ( उनके द्वारा) बरगद - महावृक्ष देखा गया । ( 4 ) ( वह वृक्ष ऐसा था ) मानो शिक्षक के रूप को धारण करके पक्षियों को सुन्दर स्वर व अक्षर पढ़ाता हो । (5) कौए नए कोमल पत्तों (वाली टहमी) पर (बैठे हुए) क - क्का, क- क्का बोलते थे (और) बाउलि पक्षी कि क्की, कि- क्की कहते थे। (6) जलमुर्गे कुक्कू, कुक्कू कहते थे, और भी मोर के - क्कई, - क्ई बोलते थे। (7) कोयलें को - क्कऊ, को- क्कऊ बोलती थीं (तथा) पपीहे कंका, कंका बोलते थे । ( 8 ) ( इस तरह से ) वह श्रेष्ठ वृक्ष फल - - पत्तों वाला था (और) गुरु गणधर के समान अक्षरों का भण्डार ( था ) ।
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