Book Title: Anuvrat Drushti
Author(s): Nagraj Muni
Publisher: Anuvrati Samiti

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Page 16
________________ ६ अणुव्रत - दृष्टि वह अपने ध्येयमें प्रवृत्त होता हुआ आशंकित दोषों की ओर से सावधान रहे और उनसे बचने का प्रयत्न करता रहे। साधारण दोषों की आशंका से किसी महत्वपूर्ण प्रवृत्तिको, जो सहस्रों गुणों से परिपूर्ण है, उपेक्षित करना टिड्डियों के भय से खेती को उपेक्षित करने जैसा है । 'अणुव्रती - संघ' यह नाम एकाएक नहीं समझ में आने वाला सा है। अतः यह बता देना भी आवश्यक होगा कि यह नामकरण किस आधारभित्ति पर अवलम्बित है। प्राचीन आर्य संस्कृति में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच महाव्रत माने गये हैं । इन पांचों महाव्रतों को पूर्णतः जीवन में उतारने का तात्पर्य है सामाजिक जीवन से परे हो कर साधु-जीवन अर्थात् सन्यास जीवन में आ जाना। एक गृहस्थ पूर्णतः अपरिग्रही, पूर्णत: ब्रह्मचारी आदि नहीं हो सकता। उसे किसी परिधि तक परिग्रह आदि को स्थान देना ही पड़ता है । अतः उसके लिए अपरिग्रह आदि के व्रत सापेक्ष दृष्टिकोण से महान रहकर लघु हो जाते हैं । लघु का ही पर्यायवाची यहाँ 'अणु' शब्द है । अणुव्रत शब्द की ऐसे कोई नई संघटना नहीं है। आज से लगभग २५०० वर्ष पूर्व भगवान श्री महावीर ने भी गृहस्थोपयोगी नियमों को ५ अणुव्रतों के नाम से ही प्रसारित किया । अतः यह विश्वास किया जाता है कि भारतीय प्राचीन संस्कृति का द्योतक यह 'अणुव्रत' - शब्द अहिंसा और सत्य - प्रधान उसी प्राचीन संस्कृति को पुनर्जीवित करनेमें अवश्य सफल होगा । अणुव्रत नये नहीं हैं, नया है अणुव्रतोंका आजके जीवनमें प्रयुक्त करनेका प्रकार जो 'अणुव्रती संघ' के रूपमें प्रस्तुत किया गया है । संघ के नाम-निर्धारण की चर्चा में इस अणुवती शब्द के विषय में कुछ विचारकों ने कहा कि यह शब्द कोई अधिक महत्त्व का द्योतक नहीं है । संगठनका नाम तो कोई आकर्षक होना चाहिए जिसके उच्चारण मात्र से श्रोता के हृदय पर संगठन के आदर्श का प्रतिबिम्ब पड़े और उसका हार्द समझने में भी अधिक कठिनाई प्रतीत न हो। पर आचार्य 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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