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विधान बहुत बड़ा आध्यात्मिक महत्व मानते हैं, व्रत के खण्डन को महा पाप मानते हैं । आमतौर से प्रचलित है, व्रत न लेना पाप और लेकर तोड़ देना महा पाप है।
मनुष्यों को पाप प्रवृत्तियों से बचाये रखने के लिये इससे बढ़कर और कोई मानसिक शृंखला नहीं हो सकती। यह एक ही धारा सारे 'अणुव्रती-संघ' के विधान को सजीव बनाने में पूरा योग देती है। बहुधा देखा जाता है कि बहुत सी संस्थाओं में बहुत से नैतिक नियम बनाये जाते हैं । पर वह नैतिकता सदस्यों के आचरणों में पूरी २ देखने को नहीं मिलती। वे नियम विधान व नियमोपनियम की पुस्तिका तक ही रह जाते हैं । यह आक्षेप नहीं, वस्तुस्थिति को समझाना है । 'अणु व्रती-संघ' इस दुर्बलता से बचा रहे इसीलिये प्रत्येक अणुव्रती को त्याग की शृंखला से जकड़ा गया है। त्याग एक आत्मानुशासन है, उसे प्रत्येक व्यक्तिको इच्छापूर्वक मानना ही पड़ता है।
अब तक ६२१ व्यक्ति अणुव्रती बने हैं। सैकड़ों भारतीय और बैदेशिक पत्रों में तद्विषयक चर्चा हुई है। बहुतसे आलोचक यह संदेह करते हैं कि क्या अणुव्रती सचमुच उन कठोर अणुव्रतों को निभा लेंगे ? वैसे तो किसी भी मनुष्य की सच्चाई की स्थिरता के विषयमें कोई अन्य सदा के लिए उत्तरदायी नहीं हो सकता। किन्तु 'अणुव्रती-संघ' के विधान को देखकर सम्भवतः हरएक को विश्वास करना होगा कि 'अणुव्रती-संघ' में नियम-पालन सम्बन्धी कोई सामूहिक दुर्बलता घर नहीं कर सकती। सैकड़ों में सर्वत्र दो चार व्यक्ति अपवाद-रूप हो सकते हैं, वह दूसरी बात होगी। 'अणुव्रती-संघ' के विधान-निर्माण में पूरापूरा ध्यान रखा गया है कि इस संगठन में ऐसा एक भी स्रोत खुला न रहे जिससे किसी दुर्बलता को अवकाश मिल सकता हो। वस्तुतः
* यह संख्या सं० २००७ देहली अधिवेशन तक की है। वर्तमान सं. २००९ के तृतीय अधिवेशन की संख्या १४०३ है।
-संयोजक
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