Book Title: Anuvrat Drushti
Author(s): Nagraj Muni
Publisher: Anuvrati Samiti

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Page 26
________________ अणुव्रत-दृष्टि प्रचलित है । किन्तु क्षमा विषयक प्रचलित प्रयोग निर्दोष नहीं; इसीलिए उसका पूर्ण सुन्दर फल जनता को नहीं मिल रहा है। वहाँ किसी भी कलह के समझौते का प्रारम्भ क्षमा मंगवाने से होता है और अणुव्रती का व्यवहार क्षमा लेने और क्षमा करने से। प्रत्येक अणुव्रती के लिये यही आवश्यक होगा, यदि अपनी त्रुटि है या सामने वाले पक्ष की त्रुटि है, वह अपनी ओरसे ही पहले शुरू करे। यदि क्षमा लेनी है तो उसके लिए प्रतिपक्षी से कहलाने के हेतु प्रतीक्षा न करे, यदि क्षमा करने का प्रसङ्ग है तो उससे क्षमा याचना करवानेकी चेष्टा न कर स्वयं उसे क्षमा प्रदान करे। आशा है, इसी तत्त्व को जीवन में उतार कर 'अणुव्रती' संसार के सामने एक नया आदर्श उपस्थित कर सकेंगे और संसार उसे अपनाने के लिए लालायित होगा। . इस प्रयत्न से भी यदि अणुव्रती मनोमालिन्य को दूर करने में सफल न हो सके तो उनका कर्तव्य है कि वे उस स्थितिको यथा-अवसर 'संघ-प्रवर्तक' के सामने रखें। यह विधान भी इस दृष्टिकोण से रखा गया है कि वह मनोमालिन्य आगे न बढ़े, 'संघ प्रवर्तक' किसी तरह दोनों व्यक्तियों को समझा-बुझाकर उसे दूर कर सकें। आचार्यवर ने प्रसङ्गवश कई बार कहा था, मैं तो यह चाहता हूं कि 'अणुव्रती-संघ में ऐसा नियम ही बना दूं कि अणुव्रती अपने पारस्परिक किसी वैमनस्य के कारण राजकीय न्यायालय की शरण ही न लें, फिर भी यह अभी तक विचाराधीन ही है । आशा है, विधानकी यह ११ वी धारा ही उक्त प्रकार के नियम का कार्य कर देगी। इस धारा का यह तात्पर्य भी नहीं कि अणुव्रतियों में कोई मत-भेद रह ही नहीं सकता। यह तो सम्भव भी कैसे हो जब कि विधानानुसार विभिन्न दल, वर्ग, जाति और धर्म के लोग संघ में सम्मिलित हो सकते हैं । मतभेद तो बहुत विषयोंमें सम्भावित है ही। मान लिया जाय कि एक अणुव्रती किसी राजनीतिक संस्था का कार्यकर्ता है और एक किसी का। दोनों एक ही प्रान्त या गांव में कार्य करनेवाले हैं। एक दृष्टि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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