________________
अहिंसा - अणुव्रत
५६
अणुव्रतिनी महिलाके लिये आवश्यक है कि वह अपनी ओरसे किसीके साथ ऐसे दुर्व्यवहार न करे ।
२५- मृतकके पीछे प्रथा रूपसे न रोना ।
रोना भी एक प्रथा, एक रूढ़ि बन चुका है। यह रूढ़ि सब प्रान्तों और सब देशोंमें एक रूपसे नहीं है । कहीं २ नहीं भी हो तथापि अधि कांश भागमें इसकी प्रबलता और विकृतता मिलती है । आवश्यक है, अन्य विवेचनसे पूर्व यह बता दिया जाय कि प्रथा रूपसे रोना कहते किसे हैं। किसी भी निजी व्यक्तिकी मृत्युसे साधारणतः सभीको कष्ट और विषाद होता है । उस विषादके साथ रोना भी स्वाभाविक-सा हो जाता है, किन्तु वह रोना प्रातः काल या सायंकालकी अपेक्षा नहीं रखता । जब जीमें याद आती है तभी आ पड़ता है । ऐसे रोनेपर कोई प्रतिबन्ध काम नहीं कर सकता, वह तो केवल आत्म-साधनाका ही विषय है । जिसका मोह जितना क्षीण या प्रबल होगा वह उतना ही उसकी अपेक्षा रखेगा।
कृत्रिम रोना वह है कि किसी भी मृतकके पीछे चाहे वह ७० या ८० वर्षका बुड्ढा ही क्यों न हो, जिसकी मृत्यु चाहे बहुत दिनोंकी प्रतीक्षाके पश्चात् ही क्यों न आई हो, निश्चित अवधि तक यथाविधि बैठकर रोना ही पड़ता है। चाहे कोई आसामयिक और आकस्मिक मृत्यु क्यों न हो, व्यवस्थित ढंगसे रोना प्रथा और रूढ़ि ही है । यदि कुछ सोचा जाय तो यह हरएककी समझ में आने जैसी बात है कि जिस परिवार में या घरमें कोई असामयिक मृत्यु हो चुकी है, दूसरे अड़ोसी - पड़ोसी व्यक्तियोंका कर्तव्य उन्हें रोनेसे रोकना है या साथ मिलकर उनके हृदय को कधिक क्षोभित कर रुलाना है, उस दुखः को भुलवाना है या याद कराते रहना है। देखा जाता है कि मृत्युके अनन्तर १२ दिन तक तो प्रायः घरवालों को सुखसे न रोटी खाने देते हैं न कुछ आराम करने देते हैं । अपने-अपने सुविधानुसार कई औरतें आती हैं तो कई जाती हैं, बहुत समय तक यह चक्र चालू रहता है। घरकी औरतोंके लिये सबके साथ
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com