Book Title: Anuvrat Drushti
Author(s): Nagraj Muni
Publisher: Anuvrati Samiti

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Page 123
________________ ग्यारह सूत्री कायक्रम ११३ अणुव्रत नियमावली के विषय में प्रारम्भ काल में यह सोचा जाता था कि इन नियमों को और भी कसने की गुंजायस है। किन्तु ज्योंही नियम व्यवहारमें आये त्योंही परिणाम कुछ और ही निकला, जो नियम समुचित मानवता तक पहुंचने के लिए साधनरूप माने गए थे, वे स्वयं एक दुस्साध्य साध्य बन गए। चूकि जनता का नैतिक स्तर जिस नीची सतह तक पहुँच चुका था और आज का जो वायुमंडल था उसमें इन नियमों को जीवन में उतार कर चलना टेढ़ी खीर था भी। बहुत से व्यक्ति तो इन नियमों को दुस्साध्य ही नहीं किन्तु प्रस्तुत वातावरण में असाध्य मान बैठे। दिल्ली में जबकि एक सार्वजनिक आयोजन में आचार्यवर के तत्वावधान में नियमावली पढ़कर सुनाई गई, श्री चक्रधर शरण (सेक्रेटरी राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद) बोले-"स्वामीजी ! पर्याप्त स्पष्टी करणों के बाद भी मेरी एक शंका शेष रह गई है कि इन नियमों को अणुव्रत याने छोटे व्रत क्यों कहा जाता है ? ये भी यदि अणुव्रत हैं तो महाव्रत फिर क्या होंगे? मैं तो सोचता हूं आज के जन-जीवन में यह महान से भी महान् नियम है।" ____ इसी विषय पर व्यवसाय-मंत्री श्री प्रकाश ने एक पत्र में लिखा था-"मानवीय प्रकृति सीमा को ध्यान में रखना सबसे अच्छा है। मैं विश्वास करता हूं कि आपकी प्रतिज्ञाएं इस बात को ध्यान में रखकर बनाई गई हैं। यदि हम ऐसी कठिन शपथ लें, जिसका पालन करना मानव की पहुंच के बाहर है तो हमें हर तरह के खतरों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। जीवन में हम जो चाहते हैं वह है संयम, नियमितता एवं अनुशासन, न कि सर्वे निषेध या अत्यधिक कठोर वैराग्य । हम जानते हैं कि कितने ही यत्न इस कारण नष्ट हुए कि उन्होंने ऐसी शपथ निर्धारित की, जिनका पालन करना साधारण मनुष्य के वश के बाहर की बात थी। मध्य मार्ग का अनुसरण करना और इस तरह भले-बुरे के बीच संतुलन कायम रखना सर्वोत्तम है।" ___* ता०४-५-४६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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