Book Title: Anuvrat Drushti
Author(s): Nagraj Muni
Publisher: Anuvrati Samiti

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Page 139
________________ आलोचनाके पथपर अणुव्रती - संघ १२६ उसका क्या महत्व है। कोई भी जैन प्रतिज्ञा लेनेसे पहले हजार बार सोचेगा, आनेवाली कठिनाइयोंको समझेगा, मानव हृदयकी कमजोरी और उसके उतार-चढ़ावका मनन करेगा, किन्तु प्रतिज्ञा लेकर, व्रत ग्रहण कर, नियमको अंगीकारकर उससे विचलित नहीं होगा । वह जानता है कि जैन श्रावकका सर्वप्रथम लक्षण आचार्य हेमचन्द्रजीके कथनानुसार “न्याय सम्पन्न विभवः" है । जबतक उसकी कमाई न्याय और सत्यकी आधार शिलापर नहीं, वह अणुव्रतो या श्रावक कहलानेका अधिकारी नहीं । अतः वह अणुव्रत धारण करते समय आनेवाली जिम्मेवारीको निभानेके लिये पूरा प्रयत्नशील रहेगा । सच्चा श्रावक बनने के पहले वह भगवान महावीरके दश मुख्य उपासकोंकी जीवनीको अपने सामने आदर्श रूपमें रखेगा। हम जानते हैं कि विघ्न और बांधायें उन्हें लक्ष्यसे मुँह मोड़ लेनेकी प्रेरणा करेंगी। सांसारिक प्रलोभन चीन की दीवार बनकर उन्हें आगे बढ़ने से रोकेंगे परन्तु वे इन सबको पारकर ध्येयकी ओर बढ़ते जायंगे । वे अपनी शक्तिका कम अनुमान न लगायें । डूबते हुए सूरजने एक दीपकसे पूछा था कि अब मेरे बाद दुनियामें उजाला कौन करेगा ? दीपकने नम्रता पूर्वक जबाब दिया- “जितना मुझसे बन सकेगा, मैं आपका काम करूँगा ।" इसी दृष्टिसे हमें अपने कर्त्तव्यका पालन करना चाहिये ।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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