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सत्य-अणुव्रत
७१. क्षेत्रों में कई न्यायाधीशोंने अणुव्रतीकी गवाहीको पूर्ण विश्वस्त मानकर तदनुकूल निर्णय दिये हैं। अणुव्रतीको समझना चाहिए, हमारा उत्तरदायित्व बढ़ रहा है और हमें इसे सही अर्थमें निभाना है।
नियममें अनर्थकारी विशेषण जोड़ देनेका तात्पर्य कुछ लोग यह मान बैठे हैं, अणुव्रतीको ऐसी असत्य साक्षी नहीं देनी चाहिए जिससे कोई बहुत बड़ा अनर्थ घटित होता है जैसे कि किसीको मृत्यु-दण्ड। अन्य स्थितियोंमें अणुव्रती स्वतंत्र है, पर यह समझना भूल है। अनर्थकारी विशेषणका प्रयोजन केवल इतना ही मानना चाहिए कि अणव्रती स्वयं या उसका कोई निजी व्यक्ति मूलतः सत्य होते हुए भी प्रमाणों (साक्षियों) के अभावमें असत्य साबित हो रहा हो, उस स्थितिमें अणुव्रती कल्पित साक्षी देने-दिलवानेसे न बच सके तो इस प्रयुक्त विशेषणके अनुसार नियम कोई आपत्ति पैदा नहीं करता क्योंकि वहाँ किसीका अनर्थ नहीं होता, यद्यपि प्रतिपक्षी अपना अनर्थ मान सकता है किन्तु उसका यह मानना अवास्तविक है। उक्त स्पष्टीकरण व्यक्तिगत मामलोंसे अधिक सम्बन्ध रखता है।
जहाँ विपक्षी आदमी मूलतः सत्य है, उसके विपक्षमें जानते हुए साक्षी देना अनर्थकारी साक्षीके अन्तर्गत ही आ जाता है ।
५-किसी व्यक्तिसे झूठा खत या दस्तावेज न लिखवाना जसे-१००) देकर २००) का खत न लिखवाना।
मनुष्य स्वार्थी होता है, बहुधा वह दूसरेकी दयनीय स्थितिसे भी अपना स्वार्थ पुष्ट करना चाहता है। उदाहरणार्थ, यदि कोई व्यक्ति ऐसी स्थितिमें फंसा है कि उसे आज ही ५००) की आवश्यकता है, बिना इतने रुपयोंके उसका व्यक्तित्व और प्रतिष्ठा खतरेमें है। परिचित व्यक्तियोंके पास वह कर्ज लेनेके लिये जाता है। कई व्यक्ति ऐसे मिल जाया करते हैं जिनकी पहली शत होती है ५००) लेकर १०००) लिये का खत मुझे लिख दो, बेचारेके और कोई मार्ग नहीं होता तो विवश होकर ऐसा कर ही देना पड़ता है। निश्चित अवधिके बाद यदि वह १०००)
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