Book Title: Anuvrat Drushti
Author(s): Nagraj Muni
Publisher: Anuvrati Samiti

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Page 115
________________ अपरिग्रह - अणुव्रत १०५ आदि लेना-देना अपरिग्रहसे । अतः प्रकरण भेदके कारण दो नियमोंका होना स्वाभाविक था । अपनी तपस्याके उपलक्ष में न लेना और अपनी ओरसे किसीकी तपस्याके उपलक्ष में न देना यह नियमकी शब्द रचनामें स्पष्ट है। इसलिये अपने किसी निजीकी तपस्याके उपलक्ष में यदि कोई व्यक्ति चीनी, मिश्री, नारियल व चांदीकी तस्तरी (थाली ) आदि अपने कुटुम्ब, अपने समाज या गांव में बाँटता है, वितरण करता है तो अणुव्रती, यदि वह अपने घरमें प्रमुख है तो उसे ग्रहण नहीं कर सकता है और न उस तरह स्वयं वितरण कर सकता है । ऐसा इस नियमका विधान है । ११ - दूषित एवं घृणित तरीकोंसे नौकरी, ठेका, लाइसेन्स आदि प्राप्त न करना । साध्यकी तरह साधन भी समुचित व नैतिक हो, यह एक परम आदर्श है । इसे यथासाध्य जीवनमें उतारते रहना अणुव्रतीका ध्येय होगा । बहुतसे पतितात्मा तुच्छ स्वार्थोंकी पूर्तिके लिये निंद्यसे निंद्य और घृणित से घृणित कर्म भी करनेके लिये उतारू हो जाया करते हैं । वे अपनी स्त्री तकको दुराचारके लिये प्रोत्साहित करनेमें नहीं हिच - किचाते और न तत्प्रकारके अन्य कर्मोंके आचरणमें भी शर्म खाते हैं । अणुवती मनुष्यताको बेचकर किसी ओर भी आकर्षित नहीं हो सकता । १२. - होटल, रेस्टोरेण्टका व्यापार करते हुए मांस, मछली, अण्डे आदिका भोजन न पकाना, न परोसना और न पीनेको मद्य देना । मांस भक्षण निषेधके विषय में सारा दृष्टिकोण तत्सम्बन्धी नियमकी व्याख्या में स्पष्ट किया जा चुका है। भोजनके रूपमें उसकी निषेध कठिन तथा कष्टसाध्य माना जा सकता है, किन्तु होटल आदिका व्यवसाय बहुत हो अल्पसंख्यक व्यक्तियोंसे सम्बन्ध रखता है । व्यतः अणुव्रतियोंके लिये तत्प्रकारका निषेध अव्यवहार्य नहीं माना गया है । वह इस प्रकारके व्यवसायोंसे सहजद्दी बच सकता है । १४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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