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अपरिग्रह अणुव्रत 'वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते'-प्रमत्त मनुष्य धन-संचयसे रक्षा नहीं पा सकता, अतः अर्थ-लालसाको मिटाना इस व्रतका मुख्य उद्देश्य है । अर्थके बिना गृहस्थ जीवनका निर्वाह नहीं हो सकता, यह मानते हुए भी अन्याय और शोषणपूर्ण तरीकोंसे अर्थार्जन तो छोड़ना होगा। अणुव्रती अपरिग्रहको ही आदर्श माने और परिग्रहको छोड़ता हुआ उत्तरोत्तर आदर्शकी ओर बढ़ता जाय । __ इस सम्बन्धमें निम्नाङ्कित नियमोंका पालन अणुव्रतीके लिये अनिवार्य है :
१-व्यापारार्थ चोर-बाजार न करना ।
चोरबाजारी जन-जनमें इतना घर कर गई है कि उसके निवारणके सारे प्रयत्न थोड़े ही मालूम पड़ते हैं। आजके समाजका यह एक ऐसा रोग हो गया है जिसकी चिकित्सा क्या हो, विज्ञान भी अभी तक नहीं बता सका। सारा संसार इस महारोगकी दुःखद अनुभूतिसे कितना संत्रस्त है, इससे मुक्त होनेके लिये कितना उत्कण्ठित है, इस दिशामें प्रकाशकी एक भी किरण दीख पड़ते ही किस प्रकार वह टकटकी लगा देता है, यह ३० अप्रैल सन् १९५० में दिल्ली में हुए अणुव्रती-संघके वार्षिक अधिवेशनके विषयमें देश और विदेशके समाचारपत्रों में हुई चर्चाओं से भली-भांति जाना जा सकता है। ___अगुवती यह माने कि चोरबाजार राजकीय व्यवस्था-भङ्ग और एक सामाजिक अपराध है। यह लोभकी पराकाष्ठा और शोषणका प्रतीक है ; अनधिकृत धनको हड़पना है। अतः यह स्पष्ट चोरी और डाका है। मुझे अपने ही एक भाईका शोषण कर उपचित ( स्थूल) नहीं होना
* पाठकोंकी जानकारीके लिये तविषयक कुछ प्रसङ्ग पुस्तकके अन्तिम भागमें दिये गये हैं।
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