________________
६०
अणुत्रत- दृष्टि
रोते रहना अनिवार्य होता है। बेचारी कोई औरत शारीरिक दुर्बलता से या अन्य किसी कारणसे रोने में सबके साथ नहीं निभ सकतो तो परस्पर चर्चा हो जाती है कि इसको क्या दुःख है, इसके वह क्या लगता था आदि । अस्तु, यह तो एक सभ्य समाज विशेष का दिग्दर्शन मात्र है, असभ्य माने जानेवाले समाजों में तो न जाने और भी क्या - क्या होता होगा ! कहीं इस प्रथा का रोना स्त्रियोंमें ही है और कहीं-कहीं तो पुरुष भी छाती माथा कूट-कूट कर रोनेमें स्त्रियोंसे बढ़कर नम्बर लेते हैं। कृत्रिमता की पराकाष्ठा हो जाती है जबकि वेतन दे देकर अन्य स्त्रियों को रुलवाया जाता है और प्रथा निभाई जाती है। पेशेवर स्त्रियां भी इस काम में बड़ी निपुण होती हैं। उनके अन्तर में कोई दर्द नहीं होता तब भी ऊपरी भावोंमें रोहिताश्व की माता 'तारा' के बिलाप का सा पार्ट अदा कर ही देती हैं। अणुत्रतिनी महिलायें इस प्रथा का अन्त कर सामाजिक जीवनमें क्रान्ति का एक नया अभ्यास प्रारम्भ करेंगी।
बहुत-सी बहिनोंका यह निवेदन रहा है कि समाजकी प्रथाके अनुसार न चलने से हमारे पारिवारिक और सामाजिक जीवनमें कटुता आ सकती है, हम पर नाना आक्षेप आ सकते हैं, तब क्या वह नियम हमारे लिये अव्यवहार्य - सा न बन जायेगा ।
बहिनोंका प्रश्न किसी अवधि तक अनुचित नहीं है । समाजके अधिकांश व्यक्ति तथ्यहीन सामाजिक ढर्रोंसे भी ऐसे चिपट जाते हैं मानो समाजकी बुनियाद उन्हीं ढरों पर अवलम्बित है, उनमें थोड़ा भी परिबर्तन बर्दाश्त नहीं करते । किन्तु अणुव्रती पुरुष एवं स्त्रियोंको तो विकास और सुधारके मार्गपर चलना है। उन्हें उन दुविधाओंसे घबड़ाना नहीं होगा । उन्हें तो यह सोच आगे बढ़ना चाहिये कि कोई भी सुधार सर्वप्रथम इने-गिने व्यक्तियोंसे ही प्रारम्भ होता है । अनेकों विरोध सामने आते हैं, किन्तु वास्तवमें यदि वह सुधार है तो अवश्य एक दिन संसारको उस पर आना होता है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com