Book Title: Anuvrat Drushti
Author(s): Nagraj Muni
Publisher: Anuvrati Samiti

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Page 64
________________ अणुव्रत-दृष्टि औषधियोंका भी क्रय-विक्रय करना पड़ता है तो वह उस प्रकारका व्यापार नहीं माना गया है। . १६–शिकार न करना। .. यह नियम भी मांस-परित्यागका पोषक है और मनुष्यकी ज्वलन्त हिंसा-वृत्तिको उपशान्त करनेवाला है। प्राचीन कालमें शिकार करनेका अधिक बोलवाला था। अनेकों लोग, खासकर क्षत्रिय, भयंकरसे भयंकर पशुओंका शिकार कर अपने वीरत्वका परिचय देते थे। अब तक भी वह प्रथा समाप्त नहीं हुई है। आज सिंहोंका शिकार करनेवाले कम रहे हैं किन्तु हरिणों और पक्षियों पर निशाना लगाकर अपनी शौक-पूर्ति करनेवाले आज भी बहुत हैं। आश्चर्य और खेदका विषय तो यह है शिकार मांस प्राप्तिके हेतु ही न होकर मुख्यतः विनोद या वीरत्व-प्रदर्शनके लिये किया जाता है। निरपराध जंगम प्राणियोंकी हिंसा और मनुष्यका विनोद। क्रिकेट, हाकी और टेनिस खेलना जिस प्रकार एक मनः प्रसत्तिका साधन है, शिकार भी उन्हीं साधनोंमें सम्मिलित है। मालूम होता है कि मनुष्यने इतर प्राणियोंके जीवनसे भी अपने तुच्छतम विनोदका मूल्य अधिक मान रखा है, अस्तु । मनुष्य आखेटके व्यसनसे कुछ दूर हुआ है इसका यह अर्थ तो अभी नहीं माना जा सकता कि वह अहिंसाकी ओर अग्रसर हुआ है। बन्दरोंकी हत्याके लिये हुआ इस वर्ष ( सम्बत् २००७) का उपक्रम उसकी छिपी हुई दानवताको प्रगट कर देने जैसा था। मान लेना पड़ता है कि अब मनुष्य समझने लगा है कि इस पृथ्वी पर जीनेका अधिकार केवल मनुष्यको और मनुष्योपयोगी प्राणियोंको ही है। शेष प्राणी जो जीते हैं वह उनकी अनधिकृत प्रवृत्ति है और वह मनुष्यका शम्भु-नेत्र उधर नहीं पड़ा, उसका परिणाम है। उक्त प्रकारकी नृशंस हत्यायें इस बातकी सूचक हैं कि इस धर्म-प्रधान भारतवर्षके आर्य माने जाने वाले लोग भी हिंसा-प्रधान देशोंसे प्रभावित होकर उनके ही पद-चिन्हों पर चलनेका प्रयत्न करते हैं। आज अनुमान बांधे जाते हैं कि देशमें इतने करोड़ वन्दर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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