Book Title: Anuvrat Drushti
Author(s): Nagraj Muni
Publisher: Anuvrati Samiti

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Page 63
________________ अहिंसा - अणुव्रत भी वह आक्रान्त कर ही रहा है। राजकीय प्रतिबन्ध बढ़ते जाते हैं, समय २ पर समाज सुधारकोंके आन्दोलन भी होते रहते हैं, तथापि मद्यपान संस्कृति और सभ्यताका अङ्ग-सा बनता जा रहा है । कतिपय शीत देशों में यह आवश्यक तत्त्व मान लिया गया है किन्तु यह अविवेक होगा कि उष्णता प्रधान भारतवर्ष भी उनका अनुकरण करे । कुछ व्यक्ति कहा करते हैं कि मद्य अति मात्रामें पीना हानिप्रद है, साधारणतया पीना तो लाभप्रद भी है । यह गलत दृष्टिकोण है । उन्हें यह पता नहीं कि उचित मात्रा नामपर भी यदि समाजने इसे प्रश्रय दिया तो आगे जाकर वह कितता विनाशकारी सिद्ध होगा। फिर तो व्यक्ति-व्यक्तिकी मनस्तृप्ति ही उचित मात्रा होगी। यह बात नहीं है कि मनुष्य जीवन के लिये मद्यकी इतनी अनिवार्यता है कि शत-शत अवगुणोंसे परिपूर्ण होते हुए भी किसी नगण्य विशेषताको लेकर उसे आश्रय दिया जाये । प्रकृतिने मनुष्यको ऐसे भी पदार्थ दिये हैं जो अवगुण रहित होते हुए भी उसकी आवश्यकताको पूर सकते हैं । अस्तु, व्यक्तिकी आदतोंको पुष्ट करनेके अतिरिक्त हमें इन तर्कों में कोई बल नहीं मिलता । स्पष्टीकरण ५३ औषधि आदिके रूपमें इसका व्यवहार नियम - वर्जित नहीं है । १८ - मद्य, मांस, मछली व अण्डा आदिका व्यापार न करना । इस नियमके विषयमें यह तर्क हो सकती है कि मांसाहारियोंके लिये जिन दृष्टिकोणोंसे मांसाहारके सम्बन्ध में अबाधकता रखी गई है क्या तद्विषयक व्यापारके विषयमें तत्प्रकारकी अबाधकता अपेक्षित नहीं है ? मांसाहार जन-जनसे सम्बन्धित है, तद्विषयक व्यापार इने गिने व्यक्तियों से सम्भवतः सौ में एकसे भी नहीं अतः दोनों नियमोंमें समान अबाधकता आवश्यक है । स्पष्टीकरण किसी व्यक्तिके औषधिका व्यापार है, यदि उसमें उसे मद्यादिमूलक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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