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अहिंसा-अणुव्रत
३१ किन्तु यह नहीं माना जा सकता कि मानव जातिके लिये इसकी अनिवार्यता है। कतिपय पाश्चात्य देशों में परों को भी सुन्दरताका प्रतीक मान लिया गया है । लाखों पक्षी मानव-समाजकी सौंदर्य-पीपासा पर बलिदान होते हैं । पढ़नेमें आया है कि इङ्गलैंडके एक व्यापारीने एक वर्षमें तीस लाख उड़ने वाले पक्षियोंका केवल परोंके लिए बध किया । फ्रान्समें तो उस प्रकारके पक्षियोंकी नसल ही नष्ट हो गई है। मानव अपने नगण्य स्वार्थके लिये कितना निर्दय हो जाता है ! ___इत्यादि दृष्टिकोणोंके आधार पर यह आवश्यक माना गया कि इस दिशामें अणुव्रती पहले कुछ करें। यह सच है कि असीम कालसे चलने वाला यह रेशमका व्यवहार एकाएक समाजसे दूर नहीं होसकता, फिर भी समाजमें एक अहिंसात्मक दृष्टिकोण तो पैदा होगा ही। सम्भवतः वह किसी समय अनुकूल स्थिति पाकर पूर्णतः विकसित भी हो सके । - रेशम का परित्याग सादगी का परिपोषक तो निस्सन्देह है ही। अहिंसा जिसके जीवन का गुण है वह अणुव्रती यदि रेशमी वस्त्रों से सुसज्जित रहता है तो यह कुछ कम शोभाजनक होता है। आवश्यकताओं को कम करने में आज के संसार की अनेक समस्याओं का हल है। आजका भौतिक दृष्टिकोण है-'आवश्यकता आविष्कार की जननी है।' पर आर्ष दृष्टिकोण बताता है कि सुख आवश्यकताओं को कम करने में है, बढ़ाने में नहीं। आवश्यकता बढ़ी और आविष्कार बढ़े तो सुख और शान्ति की दृष्टि से कुछ नहीं बढ़ा। एक व्यक्ति को १००) की आवश्यकता है, यदि उसे ८०) मिल गए तो वह २०) के लिये चिन्तित है, उसी व्यक्ति को यदि अकस्मात् ६००) मिल गये उसे कुछ सुख नहीं मिलेगा, यदि उसकी आवश्यकता बढ़कर १०००) की हो गई है। यही कारण है कि मनुष्य सुखके लिये दौड़ता है पर सच्चे सुख तक पहुंचता नहीं क्योंकि उक्त भौतिक दृष्टिकोण के अनुसार आविष्कार से पहले आवश्यकता उत्पन्न हो जाती है।इत्यादि दृष्टियों से रेशम-परिहार का यह नियम विशेष उपयोगी माना गया है।
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