Book Title: Anuvrat Drushti
Author(s): Nagraj Muni
Publisher: Anuvrati Samiti

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Page 36
________________ अणुव्रत-दृष्टि नियमका रूप दिया गया है। इसी दृष्टिकोणके अनुसार 'शिकार' आदिके आगे बताये जानेवाले नियम भी संकल्पी हिंसाके कारणसे प्रथम अणुव्रतके प्रथम नियममें ही समा सकते थे किन्तु उन्हें स्वतंत्र रूप दिया गया है। . ३-स्वदेशसे बाहर बने वस्त्रोंको पहनने और ओढ़नेके व्यवहारमें न लाना। ... स्पष्टीकरण-विशेष परिस्थिति एवं विदेशवासमें उपरोक्त नियम लागू नहीं हैं। यह पूर्वके प्रसंगोंमें बतलाया जा चुका है कि यह संगठन केवल आध्यात्मिक भित्तिपर अवस्थित है। प्रश्न उठना स्वाभाविक है--'स्व' और 'पर' का यह भेद कैसा ? आध्यात्मिकता तो जब 'स्व' और 'पर' के बीचकी खाईको मिटानेवाली है, वहां इस भेद-रेखाका निर्माण कैसा? यह सच है, आध्यात्मवाद 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के निश्चल आदर्शकी उपेक्षा नहीं कर सकता, वह तो प्राणीवर्गमें समुद्भूत समस्त विभेदोंका मूलोच्छेद ही करना चाहता है। - उक्त नियममें देशके सम्बन्धमें 'स्व' शब्दको ही व्यवहृत किया गया है, किन्तु 'स्व' की हेयता या उपादेयताके विधानमें 'पर' की हेयता या उपादेयताका अर्थ प्रतिध्वनित हो हो जाता है। अस्तु, नियमका दृष्टिकोण यहाँ 'स्व' शब्दमें बाह्यस्थित न होकर अन्तःस्थित है। वहां इस नियमसे आध्यात्मिकता ही परिपुष्ट होती है। इसके साथ यह तो स्वाभाविक है ही कि उस पल्लवित आध्यात्मिकताका लाभसामाजिक और राष्ट्रीय आदि सभी क्षेत्रोंको मिलता रहे, उसके प्रकाशसे जीवनके अन्यान्य सभी पहलू प्रकाशित होते रहें। स्पष्ट शब्दोंमें हम इस प्रकार कह सकते हैं-स्वदेशसे बाहर बने वस्त्रोंका निषेध मुख्यतः अहिंसा और सादगीके दृष्टिकोणको लिये हुए हैं। वस्त्र-विशेषकी निष्पत्तिके लिये संसारमें लाखों मीलें चलती होंगी जहां बड़ी-से-बड़ी हिंसा अनिबार्य है। जो भी गृहस्थ उन सब मीलोंके वस्त्रका परित्याग नहीं करता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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