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अणुवन-दृष्टि देखा जाये तो इन अणुव्रतों को संगठन के रूप में लाने का प्रमुख उद्देश्य भी यही है कि उनका यथावत् पालन हो।
आगे कुछ धारायें और भी मिलेंगी जो इसी धारा के उद्देश्य को पुष्ट करनेवाली होंगी।
७-प्रथम बारह मास में अणुव्रती त्यागवत् साधना भी कर सकेंगे। - धारा नं० ६ बताती है कि 'अणुव्रती-संघ' में आनेवाले व्यक्ति को सारे नियम त्याग के रूप में पालन करने होंगे। चंकि त्याग एक उत्कृष्ट
आत्मानुशासन है, उसका आध्यात्मिक सुफल जैसा अनुपम है, त्यागभंगका कुफल भी उतना ही भयंकर है। त्याग लेनेसे पूर्व हरएक व्यक्ति त्याग-भंग न करनेका दृढ़ संकल्प कर ही लेता है। त्याग-भंग की कोई भी संभावना के रहते कोई विचारवान व्यक्ति त्याग लेने को तत्पर नहीं होता। त्याग को भारतवासी लोग महान् वस्तु मानते हैं और मानना भी चाहिए। अणुवती होने की भावना रखने वाला व्यक्ति यदि एकाएक त्याग के निरपवाद मार्ग में कदम नहीं बढ़ा सकता तो वह अणुव्रती होकर प्रथम बारह मास तक केवल साधना भी कर सकेगा। किन्तु वह साधना केवल कथन रूप ही नहीं होगी, वह वस्तुतः त्यागवत् अर्थात त्याग समान ही होनी चाहिए। यह इस धारा का हार्द है।
प्रश्न यह उठता है कि उक्त स्थिति में त्याग और त्यागवत् में अन्तर क्या रहा ? बात स्पष्ट है । साधना में वर्तनेवाले व्यक्ति से यदि कहीं चूक होती है तो वह त्याग-भंग के दोष से बच जाता है । ____ कोई व्यक्ति यह सोचकर कि त्याग लेना ही त्याग-भंगकी संभावना
को पैदा करता है, सदा के लिए ही साधना में नहीं चल सकता। उसे निर्धारित अवधि के बाद त्याग का आत्मबल जागृत करना होगा। - साधना का काल प्रथम १२ मास है। इस अवधि के पश्चात् यदि
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