Book Title: Anuvrat Drushti
Author(s): Nagraj Muni
Publisher: Anuvrati Samiti

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Page 20
________________ १० अणुव्रत - दृष्टि इस धारा के मूल में तात्पर्य यही है कि सुपरीक्षित व्यक्ति ही अणुती बनाये जाय ताकि 'अणुव्रती - संघ' में अणुव्रतोंकी सजीवता रहे । ५ - किसी भी धर्म, दल, जाति, वर्ण और देश के स्त्री-पुरुष अणुव्रती होने के अधिकारी होंगे। अणुव्रतों की रचना आध्यात्मिक दृष्टिकोण से की गयी है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण भी भिन्न-भिन्न धर्मों का भिन्न-भिन्न रहता है । किन्तु निर्दिष्ट अणुव्रतों की इस पृष्ठ भूमि तक सम्भवतः सब धर्म एक हैं । इसलिये धर्म-भेद इस संगठन में बाधक नहीं हो सकता । 'संघ - प्रवर्त्तक' एक धर्म-विशेष के आचार्य हैं इसलिये भी कुछ व्यक्तियोंके विचार इसकी सार्वजनिकता के प्रति संदेह हो सकता है। पर वह निराधार संदेह होगा । धर्म अणुव्रतियों का भी जब पृथक् २ है, अपना-अपना एक-एक है, तब 'संघ - प्रवर्त्तक' यदि किसी एक धर्मविशेष के नेता हों तो कौन सी आपत्ति हो सकती है । वह उनका वैयक्तिक प्रश्न है । किसी पद्धति से अध्यक्ष का चुनाव यदि होता है वह किसी एक धर्म में विश्वास रखनेवाला तो हो ही सकता है, जब कि अणुव्रतियों के विभिन्न धर्माबलम्बी हो सकने का विधान है। दूसरी बात यह है कि 'अणुव्रती - संघ' अणुव्रतों के पालन या अपालनके विषय में ही 'संघ-प्रवर्त्तक' द्वारा अनुशासित है, अन्यान्य अपनी-अपनी धार्मिक प्रवृत्तियों के लिये प्रत्येक स्वतन्त्र है | ----- 'दल' का तात्पर्य: आज विविध प्रकार के संगठन देखे जाते हैंराजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक आदि । आज अधिकांश व्यक्ति भी अपने विचारों के अनुकूल किसी-न-किसी दल से सम्बन्धित रहते हैं किसी भी संस्था या सभाका सदस्य 'अणुव्रती संघ' में प्रविष्ट हो सकता है बशर्ते कि वह अणुव्रतों का विधिवत पालन कर सकता हो । ६ - अणुव्रती को निर्धारित प्रतिज्ञाओंका व्रत रूप से ( त्याग रूप से ) पालन करना होगा । प्रायः समस्त भारतीय और अभारतीय भी त्याग अर्थात् व्रत का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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