Book Title: Anuvrat Drushti
Author(s): Nagraj Muni
Publisher: Anuvrati Samiti

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Page 19
________________ विधान सीमित कर देना ये दो बातें किसी विचारक के विचार तंतुओं में सहसा एक नया स्पन्दन पैदा कर सकती हैं तथा जाति, धर्म, देश आदि भेद - विहीन व्यापक उद्देश्य को संकीर्ण कर देनेवाली सी प्रतीत होती हैं । किन्तु अन्तर्निहित उद्द ेश्य तक पहुंच जाने के पश्चात् वस्तुस्थिति सम्भवतः और ही मिलेगी । बहुधा यह देखा जाता है कि आजकल के अधिकांश संगठन विश्वव्यापी होने का विश्वास लेकर उठते हैं, अतः उनके नियमोपनियम भी उसी दृष्टिकोण से बनाये जाते हैं कि कोई भी नियम उसके विश्वव्यापी या देशव्यापी होने में बाधक न हो । व्यापकताके सारे प्रवेश-द्वार खुले रखे जाते हैं, पर वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है कि प्रवेश द्वार खुले हैं इसलिये सारा विश्व उसमें प्रविष्ट हो ही जाय। फल यह होता है कि उन विशाल द्वारों से अनुत्तरदायी व्यक्ति उन संगठनों में आकर प्रविष्ठ हो जाते हैं । और सुदृढ़ अनुशासन के अभाव में उद्देश्यों और नियमों की भी उपेक्षा करते हैं । अन्ततोगत्वा न तो वह संगठन विश्वव्यापी ही बनता है और न वह अपनी मूल स्थितिमें ही पवित्र रहता है । संसार में उसका एक निर्जीव रूढ़ि या परम्परा के अतिरिक्त कोई महत्त्व नहीं रह जाता । 'अणुव्रती - संघ' की इस धारा से स्पष्ट हो जाता है कि संघका परम लक्ष्य अपने उद्द ेश्य को या दूसरे शब्दों में अपने मूल स्वरूप को विशुद्ध रखने का है और गौण लक्ष्य व्यापकता का । इसका यह अर्थ तो नहीं कि आचार्य श्री तुलसी व्यापकता को नहीं चाहते किन्तु उनका विश्वास तो यह है यदि १०० भी व्यक्ति सही अर्थ में अणुव्रतों को पालनेवाले हुए तो संघ विश्वव्यापी न भी हुआ तो भी सब को मानना होगा कि कुछ कार्य तो हुआ । यदि अपने लक्ष्यसे परे होकर वह विश्वव्यापी हुआ भी तो संसारकी अन्य परम्पराओंमें एक परम्परा और बढ़ीं, कार्य कुछ नहीं हुआ। उनकी दृष्टिमें वही व्यापकता अवश्य उपादेय है जो मूल उद्देश्य की सफलता के साथ-साथ उपलब्ध होती है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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