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काया में, मेरी जुड़ी जाँघों के गहराव में छुप कर, वह विलुप्त हो जाने को व्याकुल है। ___अन्धकार की इस अभेद्यता में एकाएक कुछ दरारें-सी पड़ी । इस भय के छुपने की गुफाएँ भी आत्म-निवेदन करती-सी सामने आईं । व्यथा, वियोग, एकाकीपन । बिछुड़न का एक असह्य नागदंश । · · घने कुहरे और अँधियारे की प्रगाढ़ प? में दिखाई पड़ा, कोई आलोकित महल । - ‘नन्द्यावर्त ? एक सूना कक्ष, एक परित्यक्त शैया । · · ·एक और रत्न-दीपालोकित कक्ष की दो जुड़ी शैयाएँ । . . . प्रियकारिणी, तुम्हारी छटपटाहट को देख रहा हूँ। समझ रहा हूँ । केवल अपनी ही बिछुड़न को, व्यथा को, एकाकीपन को देखोगी? किसी दरिद्र की झोपड़ी में बिलखती उस अकेली माँ को नहीं देखोगी, जिसका इकलौता बेटा आज ही सवेरे इस पराये, निर्मम संसार में उसे अकेली छोड़ गया है ? उसे आश्वासन देने वाला भी कोई नहीं है । - ‘अपने ही एकान्त के सन्नाटे में छाती तोड़ती, बिलपती उस युवती विधवा को नहीं देखोगी ? • • वह तुम्हारे लड़कपन की शेफाली : उसके सारे परिजन रो-धोकर, हार कर सो गये हैं । सबके होते भी वह कितनी अकेली है ! है कहीं कोई उसका सहारा ? कोई किसी को यहाँ कभी सहारा दे सका है ? तुम्हारी देह पर समर्थ सिद्धार्थराज की आश्वासन भरी बाहु पड़ी है। और जगत की मदुतम शैया की ऊष्मा में तुम सोई हो । · पर क्या नहीं देखोगी, प्रजाओं की माँ होकर, वे करोड़ों झोपड़ियाँ, जहाँ अन्तहीन अभाव, दैन्य, भूख-प्यास, रोग, वियोग, मृत्यु के मुख में, जाने कितनी ही आत्माएँ, अपने आँसू आप ही पोंछती हुई, पीती हुई, जीने को मजबूर हैं ? आप ही अपने को पुचकार कर जो सुला रही हैं । भीतरबाहर, कहीं कोई सहारा, आशा, भविष्य जिनका नहीं है ।
सुनो त्रिशला, मेरी यह नग्न छाती यदि उन सबको आश्वासन, आलम्ब, ऊष्मा देने को लोकालोक का तट बन गई है आज, तो क्या तुम यों शोक करोगी? इतनी स्वार्थिनी बनोगी? क्या मेरा यह अन्तिम आलम्ब-वक्ष भी तुम्हें सहारा नहीं दे पाता ? देखो न, पास ही तात कितने शान्त, अपनी व्यथा को अपने में समाये, निस्पन्द लेटे हैं, तुम्हें अपनी बाहुओं में आश्वस्त करने को विकल...!
वैना, सोमेश्वर · · ·अपने आँसू मुझे दो : मुझ में बहाओ। जड़ शून्य में उन्हें व्यर्थ न करो। व्यथा, विछोह, एकाकीपन ? अणु-अणु के बीच पड़ी खंदकों के किनारे मैं खड़ा हूँ । हो सके तो, उन्हें अपने चरम अस्तित्व से पाट देने के लिये । अपनी परम प्रीति से उन्हें अन्तिम योग में संयुक्त कर देने के लिये । • • ‘कान में जिसके उबलता सीसा बहा दिया गया है। वह जो कहीं कोई मरण की अन्तिम साँसें ले रहा है : राजमहल की शैया पर हो या झोपड़ी के चिथड़ों में। कितना एकाकी है वह कोई भी, कितना असहाय ! . . . नरक की वैतरणी में जो अपने ही खून की उबलती कढ़ाई में खदबदा रहा
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