Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 11
________________ तत्व का वसन्त • 'जन-रव की डूबती रेखा के छोर को सुना । देखा भी । नीरव सन्नाटा छा गया । हेमन्ती साँझ का कुहरा गहराता जा रहा है । हिमानी हवा में रक्त जम रहा है : अस्थियाँ बिंध रही हैं । देख-देखते पाया कि स्वयम् ही हिमवान हो गया हूँ : अविचल, निस्पन्द । शीत की वेधकता कहाँ खो गई : स्पर्श जैसा कुछ अब नहीं रह गया है। देख रहा हूँ, हिमावर्त, उज्ज्वल और अन्तर्लीन। केवल स्वयम् आप। घिरते प्रदोष के नीहार-प्रान्तर के तट पर, कहीं कोई नदी की रेखा चुपचाप सिरा गई। दूर का वह पहाड़ विलुप्त होकर, चारों ओर घिरी इस वनानी के झाड़ हो गया। • देख रहा हूँ, केवल एक पेड़ को अपने पास चुपचाप सरक आते हुए। वह बेहिचक चला आया मेरे भीतर : और सहसा ही लगा कि आकार मात्र निःशेष हो गये । __एक अथाह अंधकार के सिवाय कहीं और कुछ नहीं है। आदि में अन्धकार है, अन्त में अन्धकार है। मध्य में भी वही है । अफाट और अन्तिम अन्धकार । नरक की अन्तिम पृथिवी महातमःप्रभा भी इसमें खो गई है। उसके तले का घोर तिमिरान्ध निगोदिया जीवों का संसार भी इसमें विजित हो गया है । लोक को आवेष्टित किये हुए तीनों वातवलय इस प्रगाढ़ तमोराशि में तीन धागों-से विशीर्ण, होते दिखाई पड़े ! • • ‘शेष रह गया है केवल अलोकाकाश का अनन्त व्यापी अन्धकार ।यह शुद्ध और तात्विक अन्धकार का लोक है। अभाव की इस तमिस्रा में अपनी सत्ता भी सिराती लग रही है । चुनौती सामने है, कि क्या इसको तैर. सकूगा? · . 'अरे कौन, किसे तैरे? कौन हूँ मैं · · कौन ? • पता नहीं। पर पाता हूँ कि, इससे भी परे के एक विराट नैर्जन्य में अपने को एकाकी खड़ा देख रहा हूँ। यहाँ आदि, अन्त और काल तक जैसे नहीं है । स्वयम् आप, नितान्त एकाकी हो रहने के अतिरिक्त यहाँ कुछ संभव नहीं । नग्न और नितान्त सत्ता, निराधार और निरालम्ब । विनाश और विसर्जन की सीमाएँ जाने कब कहाँ छूट गईं। भयानकता यहाँ अनजानी है। भय एक अनाथ बालक-सा घुटने टेके पैरों के पास आ बैठा है । वह शरण खोज रहा है मेरे भीतर । इस नग्न और निरीह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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