Book Title: Anubhav Prakash
Author(s): Lakhmichand Venichand
Publisher: Lakhmichand Venichand

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Page 11
________________ ॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ९॥ . सो ऐसा मानिका करणहार मेरा उपयोग अशुद्धस्वांगही धरि बैठा है। जैसे कोई एक है नटवा वरदका स्वांग ल्याया है, पूछ है, आपा भूल्या है, मैं नरकी पर्याय कब है है पावौंगा ? झूठेही पूछ है, नर ही है । भूलते यह रीति भई है । तैसें चिदानन्द आपा है है भूल्या है, परमैं आपा जान्या है, अपनी आप भूलि मेटै, सदा उपयोग धारि आन- है है न्दरूप आप स्वयमेवही वन्या है । विनायत्नतें निजनिहार नाही कार्य है । निजश्रद्धा है है आये निज अवलोकन होय है । यह श्रद्धा काहेरौं होय है सो कहिये हैं। प्रथम सकललौकिकरीति” पराङ्मुख होय, निजविचारसन्मुख होय, कर्मकन्दरावि है है छिप्या है चिदानन्द राजा । नोकर्म प्रथमगुफा, दूजी द्रव्यकर्मगुफा, तीजी भावकर्मगुफा है हैं प्रथम नोकर्मगुफामैं परिणति पैठि कि, हमारा राजा देखै, तहां उसको कछु न दीसै, चक्रति है । होय रही, तब फिरिनै लगी, तब श्रीगुरुनैं कह्या कि, तूं कहा ढूंढे है ? तब वह कहने । है लगी, मेरे राजाकौं देखौं हो सो न पाया। तब श्रीगुरुनें कह्या तेरा राजा यहांही है, है

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