Book Title: Anubhav Prakash
Author(s): Lakhmichand Venichand
Publisher: Lakhmichand Venichand

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Page 10
________________ ॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ८ ॥ जानिविना परकी मानिकरि संसारी दुःखी भये । सो परकी मानि कैसें मिटैं? सों कहिये हैं | भेदज्ञान पर निजका अंश अंश न्यारा न्यारा जानै । मैं उपयोगी, मेरा उपयोगत्व ग्रन्थ गावैं हैं । मै देखों जानौं हौं । यह निश्चय ठीक कीये आनन्द बढै ! परपरिणति मेरी करी है । न करों तौ न होय मानि, मेरी परमैं मै करी मानि, मै निज मैं मानों, तौ मानतप्रमाणही मुक्तितैं याही सगाई अवश्य वर हौंगा । करमके भरमका विनाश निजसरम पाये होय है । सो निजसरम कैसे पाईये ? सो कहिये हैं ॥ अब मेरा अनन्तसुख मेरे उपयोग में है । सो मेरा उपयोग तौ सदा मैं धरों हौं । मै उपयोगको भूलि अनुपयोगी मैं अनादि रत भया सुखस्थानक चेतना उपयोग भूल्या सुख कहांतें होय ? अब मै साक्षात् उपयोगप्रकाश ठावा ( योग्यस्थान ) कीया | काहेतें ? अहं नर ऐसी मानि, नरशरीर जड मैं तौ न होय, मेरे उपयोग भई है । "

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