Book Title: Anekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 16
________________ 16 अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014 यहः लोकाकाशवर्ती एवं अलोकाकाशवर्ती आकाश एक अखण्ड आकाश मं होता है। कतिपय श्वेताम्बर आचार्यों की मान्यता : काल के विषय में कुछ श्वेताम्बर आचार्य कहते हैं कि सूर्य, चन्द्रमा आदि की गति वर्तना की प्रयोजक हेतु हो सकती है, अतः काल द्रव्य को मानना आवश्यक नहीं है। इस विषय में आचार्य विद्यानन्दि जी का कहना है‘आदित्यादिगतिस्तावन्न तद्हेतुविभाव्यते । तस्यापि स्वात्मसतानुभतौ हेतुव्यपेक्षणात् ।। अर्थात् सूर्य आदि की गति की प्रतीति भी तब तक नहीं हो सकती है, जब तक उनको जानने के लिए अन्य हेतु उपस्थित न हो। क्योंकि उनके गमन की भी स्वासत्ता की अनुभूति में अन्य हेतु की अपेक्षा होती है। अतः सभी श्वेताम्बरों को काल द्रव्य मानना अनिवार्य है। कालविषयक बौद्ध मान्यता : बौद्ध परम्परा में काल द्रव्य की स्वीकृति केवल व्यवहार के लिए कल्पित है। वह कोई स्वभाव सिद्ध द्रव्य नहीं है, प्रज्ञप्तिमात्र है।” किन्तु भूत, भविष्यत् एवं वर्तमान आदि व्यवहार मुख्य काल के बिना नहीं हो सकते हैं। जिस प्रकार किसी बालक में सिंह का व्यवहार मुख्य सिंह की सत्ता के बिना संभव नहीं है, उसी प्रकार समस्त काल विषयक व्यवहार मुख्य काल द्रव्य को माने बिना नहीं बन सकता है। बौद्ध वर्तमान काल को स्वीकार ही नहीं करते हैं, क्योंकि निर्विकल्प दर्शन द्वारा वर्तमान की दृश्यमानता नहीं बन पाती है। उनके लिए आचार्य विद्यानन्दि का कहना है कि वर्तमान को मध्यवर्ती मानकर ही भूत एवं भविष्यत् काल माने जा सकते हैं, अन्यथा नहीं । बौद्धों को वर्तमान काल अवश्य मानना पड़ेगा। यदि वे वर्तमान काल नहीं मानेंगे तो क्षणिकवाद में एक क्षणवर्ती सत्ता भी पदार्थ की सिद्ध नहीं हो सकेगी। बौद्ध स्वसंवेदनाद्वैत स्वीकारते हैं किसी की भी स्वीकृति वर्तमान काल के स्वीकार कर लेने पर ही सिद्ध होती है। यदि वर्तमान काल का अपह्नव कियाजायेगा, तो फिर स्वसंवेदन का भी अभाव हो जायेगा। कहा भी गया है 'इति स्वसंविदादीनामभावः केन वार्यते।

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