Book Title: Anekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 15
________________ 15 अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014 तब उनके प्रवर्ताने में काल द्रव्य सहकारी कारण बनता है, इसलिए वर्तना को काल का उपकार कहा गया है। एक धर्म की निवृत्ति करके दूसरे धर्म के पैदा करने रूप और परिस्पन्द से रहित द्रव्य की पर्याय को परिणाम कहते हैं। द्रव्य में होने वाले परिस्पन्द रूप परिणमन का नाम क्रिया है। कालकृत पूर्वापरता को परत्व-अपरत्व कहते हैं। ये सब कालकृत उपकार या कार्य हैं। निश्चय और व्यवहार काल : लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में व्याप्त असंख्य अविभागी परमाणु निश्चय काल तथा परमाणु का अन्य परमाणु तक पहुँचने का काल व्यवहार काल कहलाता है। घटी, घण्टा, दिन आदि सब व्यवहार काल के रूप हैं। विश्व-व्यवस्था के लिए काल द्रव्य की स्वीकृति अनिवार्य है। वैशेषिकों की कालविषयक मान्यता : वैशेषिक भूत, भविष्यत् एवं वर्तमान व्यवहार के कारण को काल कहते हैं। उनकी दृष्टि में काल एक है, विभु और नित्य भी है। अन्यत्र उन्होंने विभ होकर जो अतीत आदि व्यवहार का निमित्त कारण है. उसे काल कहा है। परन्तु प्रश्न उठता है कि नित्य और एक द्रव्य में जब स्वयं भूत, भविष्यत्, वर्तमान आदि भेद नहीं हो सकते हैं, तब उसके निमित्त से अन्य पदार्थों में भूत, भविष्यत् एवं वर्तमान भेद कैसे हो सकेंगे? अतः वैशेषिकों द्वारा काल को एक मानना युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता है। आचार्य विद्यानन्दि स्वामी ने लिखा है - 'सोऽनन्तसमयः प्रोक्तो भावतो व्यवहारतः। द्रव्यतो जगदाकाश प्रदेशपरिमाण कः।। लोकाकाशबहिर भावे स्याल्लोकाकाशस्य वर्तनम्। तस्यैकद्रव्यतासिद्धर्युक्तं कालोपपादितम्।।६९ वह काल द्रव्य अनन्त समय वाला है। व्यवहार से पुद्गल आदि की भिन्न-भिन्न वर्गणाओं की प्रयोजक अनन्त शक्तियों को धारण करने से एक कालाणु भी अनन्त समय-शक्ति वाला कहा जाता है, द्रव्य रूप से काल अनन्त नहीं है। वह लोकाकाश प्रदेश परिमाण वाला है। अलोकाकाश में जो अतीत आदि व्यवहार होता है, वह लोकाकाशवर्ती काल के कारण ही है।

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