Book Title: Anekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 16
________________ अनेकान्त-56/1-2 ज्ञान मिथ्यापने को त्याग कर सम्यग्ज्ञानपने को प्राप्त कर लेता है इसलिये वह ज्ञानगुण अथवा ज्ञानगुण के स्वरूप में परिणत जीव अबन्धक कहा जाता है इस कथन के आधार पर पण्डित जगन्मोहन लाल जी ने अविरतसम्यग्दृष्टि को भी ज्ञानी और अबन्धक स्वीकार किया है। 1 समयसार की गाथाओं में जहाँ भी सम्यग्दृष्टि अथवा ज्ञानी पद आता है वहाँ तात्पर्यवृत्ति में तो वीतरागसम्यग्दृष्टि को स्वीकार किया गया है प्रायः आचार्य श्री अमृतचन्द्रसूरि ने भी वीतरागसम्यग्दृष्टि अर्थ ग्रहण किया है जैसे-'णत्थि दु आसवबन्धो सम्मादिट्टिस्स आसवणिरोहो।' अर्थात् सम्यग्दृष्टि के आस्रव बंध नहीं है, प्रत्युत आम्रव का निरोध है। आस्रव का निराध राग द्वेष मोह से रहित जीव को ही संभव है अत: दोनों ही आचार्यो को वस्तुतः समयसार में वीतराग सम्यग्दृष्टि इष्ट है। उक्त 179 नं. की गाथा का विशेषार्थ लिखकर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने ययार्थता को उपस्थित किया है वे लिखते हैं-"ज्ञान शब्द का अर्थ दो प्रकार से किया जा सकता है एक तो यथावस्थित तमर्थ जानातीति ज्ञानम्, दूसरा आत्मानं जानाति अनुभवतीति ज्ञानम्। द्वितीय अर्थ के अनुसार तमर्थ तो समाधिकाल में ज्ञान जब तक अनुभव करता रहता है, तब तक वह ज्ञान कहा जा सकता है। ध्यान समाधि से जहाँ च्युत हुआ कि वह अज्ञान कोटि मे आ जाता है और बन्ध भी करने लग जाता है। तात्पर्यवृत्ति और आत्मख्याति दोनों ही टीकाओ के अनुसार चतुर्थ गुणस्थानवी जीव का ज्ञान भी इस ज्ञान शब्द से लिया जा सकता है क्योंकि वह भी जीवादि नव पदार्थो का यथार्थज्ञान रखता है किन्तु इस अर्थ के अनुसार गाथा का जो अर्थ यहाँ लिया गया है, वह कुछ खींच कर लिया हुआ सा प्रतीत होता है जिसका समर्थन आत्मख्याति और तात्पर्यवृत्ति के अन्य स्थानों से नहीं होता है। स्वयं जयसेनाचार्य ने स्थान स्थान पर यही लिखकर बताया है कि इस ग्रन्थ मे जो वर्णन है, वह गृहस्थ सम्यग्दृष्टि को लेकर नहीं किन्तु वीतराग (त्यागी) सम्यग्दृष्टि को लेकर किया है। इस प्रकरण मे जयसेनाचार्य के शब्दों को देखा जा सकता है- "अत्र ग्रन्थे वस्तुवृत्त्या वीतरागसम्यादृष्टेर्ग्रहणं यस्तु चतुर्थगुणस्थानवर्ती सरागसम्यग्दृष्टिस्तस्य गौणवृत्त्या ग्रहणम्' अर्थात् इस ग्रन्थ में वास्तव में वीतरागसम्यग्दृष्टि का ग्रहण है, चतुर्थगुणस्थानवर्ती सरागसम्यग्दृष्टि का ग्रहण तो गौण रूप से तथा मिथ्यादृष्टि

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