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१२, वर्ष ४१, कि.१
अनेकान्त
हुए कहते हैं कि जो करता है वह वेदन नहीं करता- कुन्दकुन्द का चिन्तन समयसार मे इतना गाढा भोगता नही है। क्षणिकवादी बौद्धों का भी मत देते है कि हो गया है और लगता है कि इसे उन्होंने जीवन के अन्त 'अन्य (क्षण) करता है और अन्य (क्षण) भोगता है। में तब बनाया है जब व इसके पूर्व कई ग्रन्थ रच चुके थे "ऐसे लोगों को क्या कहा जाय ? उन्हे सत्य के परे ही और समकालीन दार्शनिक मान्यताओ को अच्छी तरह जानना चाहिए। इस प्रकार समयसार मे जहां एक अध्यात्म-पृष्ठ है
अभ्यस्त कर चुके थे। तभी वे इसमे अपने समन मुनियहां हम दूसरा दार्शनिक पृष्ठ भी देखते हैं । वस्तुत. बिना।
जीवन और आगमाभ्यास से अजित अनुभव को अस्खलित दर्शन के आध्यात्म को न समझा जा सकता है और न उसे
भाव से विन्यास कर सके । यह नि.सन्देह अमृत-कलश है।
" प्राप्त किया जा सकता है।
ओ शान्तिः ।
सन्दर्भ सूची :१. वन्यो विभुवि न करिह कौण्डकून्द.कन्दप्रभा-प्रणयि. ५. वही, मगला० पद्य ३ । कीति-विभूषिताशः ।
६. ... .. .'समयप्रशिकस्य प्रभृतावस्वाहत्प्रवचनायश्चारूचारण-कराम्बुज-चंचरीकक श्च के श्रुतस्य भरते वयवम्य स्वपरयोरनादिमोहप्राणाय भाववाचा द्रव्यप्रयत: प्रतिष्ठाम् ॥
वाचा च परिभाषण मुपक्रम्यते।" श्रवणवेलगोला, चन्द्रगिरि-शिलालेख।
--वही, गाथा २ को व्याख्या । ....... कोण्डकुन्दो यतीन्द्रः ।।
१०. ... ...... "न खलु समयसारादुत्तर किंचिदस्ति" रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्तर्बाह्य ऽपि संव्यंजयित यतीशः। -वही, कलश २४४, समयपाहुड गा० ४१३, ४१४ रजः पद भूमितल विहाय चचार मन्ये चतुरगुल सः॥
की आत्मख्याति। -श्रवणवेलगोला, विन्ध्यगिरि-शिलालेख ,
११. वीतराग जिन नत्वा ज्ञानानन्दकमम्पदम् । २. डॉ० दरबारीलाल कोठिया, "आचार्य कुन्दकुन्द का
वक्ष्ये समयसार य वृत्ति तात्पयंसज्ञिकाम् ॥ प्राकृत वागमय और उनकी देन" शीर्षक लेख, "जैन.
___-- सेन, तात्पर्यबृत्ति, गा०.१, मगला० । दर्शन और प्रमाणशास्त्रपरिशीलन"-१० २४ से ३०. १२. "प्राभूत मार सारः शुद्धावस्था, वी० से० म० दृस्ट।
समयस्यात्मनः प्राभूत समयप्राभृत।" ३. मगल भगवान् वीरो मगल गौतमो गणी।
--वही, ता. वृ० गा०-१, व्याख्या। मंगल कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्मोऽस्तु मगल ।।
१३. स० पा० गा० ४१०, ४११ । शास्त्रप्रवचन का मंगलाचरणपद्य। १४. वही, गा०-१ ।। ४. वदित सम्वसिद्ध ध्र वमचलमणोवर्म गइ पत्ते। १५. वही, गा०-५ । वोच्छामि समयमाहामिणमो सयकेवली भणिय ॥ १६. जयसेन, ता० १० गा-५ ।
-समयपा० गा०-१। १७. श्रोतव्य श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभिः । ५. जो समयपाहुडमिणं पढिदूण य अस्थतच्चदो णाऊ । मत्वा च सतत ध्येय एते दर्शनहेतवः ।। अत्येठाही चेया सो होही उत्तम सोक्ख ॥
"आत्मा वाऽ रे श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासतव्य:" -वही गा० ४१५ ।
-उपनिषद्वाक्य । ६. पाखंडीलिगेसु व गिहलिगेसु व बहुप्पयारेसु ।
१८. दृष्टमनुमानमाप्तवचन च सर्वप्रमाणसिद्धत्वात् । कुव्वंति जे ममत्त तेहिं ण णाय समयसार ॥
त्रिविध प्रमाणमिष्टं प्रमेयसिद्धिः प्रमाणाद्धि । -वहीं, गा० ४१३ ।
—ईश्वरकृष्ण, साख्यका० ४ । ७. नमः समयसागय स्वानुभूत्या चकासते।
१६. अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला १.१ । चिस्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे ।।
२०. "मतिश्रुतावधिमनःपयर्यकेवलानि ज्ञानम् तत्प्रमाणे, -~-अमृत चन्द्र, आत्मख्याति, मंगला० पद्य-१ ।
(शेष पृ० २७ पर)