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अनेकान्त
१० वर्ष ४१.० १
"सुयकेवली भणिय" ( श्रुतके वलीकथितं ) यह पद प्रथमाविभक्ति का होते हुए भी हेतुपरक है। वहा वह "समयपाट" की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए हेतु रूप मे प्रयुक्त किया गया है। न्यायशास्त्र में प्रथमा विभक्ति वाला पद भी हेतु रूप में स्वीकार किया हुआ है।" अतः इस हेतु रूप पद के द्वारा कुन्दकुन्द ने अपने "समयपाहुड" को प्रामाणिक सिद्ध किया है। समयसार में दर्शन
यहां हम कतिपय ऐसे तथ्य भी प्रस्तुत करेंगे, जिनके आधार पर हम यह ज्ञात करेंगे कि समयसार ने आ० कुकुन्द ने अनेक स्थलों पर दर्शन के माध्यम से शुद्ध आत्मा को प्रदर्शित किया है, वे इस प्रकार है
१. समयसार गाया ५ मे कुन्दकुन्द कहते है कि मैं अनुभव, युक्ति और आगमरूप अपने वैभव से उस एकत्वविभक्त शुद्ध आत्मा को दिखाऊगा यदि दिखाऊ तो उसे प्रमाण (सत्य) स्वीकार करना और कही चूक जाऊ तो छल नही समझना। यहां उन्होंने शुद्ध आत्मा को दिखाने के लिए अनुभव ( प्रत्यक्ष), युक्ति (अनुमान) और आगम इन तीन प्रमाणों को स्पष्ट स्वीकार किया है। उनके कछ ही उत्तरवर्ती आचार्य गृद्धपिच्छ और स्वामी समन्तभद्र" जैसे दार्शनिकों ने भी इन्ही तीन प्रमाणो से अर्थ ( वस्तु) प्ररूपण माना है और उन्हे भ० महावीर का उपदेश कहा है। कुन्दकुन्द के उक्त कथन में स्पष्टतया दर्शन को पुट समाविष्ट है और यह तथ्य है कि दर्शन बिना प्रमाण के आगे नहीं बढता ।
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२. कुन्दकुन्द गाथा ३ में बतलाते है कि प्रत्येक पदार्थ अपने एकाने मे सुन्दर स्वच्छ अच्छा भला है और इसलिए लोक मे सभी पदार्थ सब जगह अपने एकपने को प्राप्त होकर सुन्दर बने हुए है। किन्तु उस एकरने के साथ दूसरे का बन्ध होने पर झगड़े ( विवाद ) होते हैं और उसकी सुंदरता ( स्वच्छपना - एकपना ) नष्ट हो जाती है । वास्तव में मिलावट असुन्दर होती है, जिसे लोक भी पसन्द नही करता और अमिलावट ( निखालिस एकपना) सुन्दर होती है, जिसे सभी पसन्द करते हैं। यह सभी के अनुभवसिद्ध है। कुन्दकुन्द कहते है कि जब सब पदार्थों का एकत्व ही सुन्दर है तो एकत्व - विभक्त प्रात्मा सुन्दर क्यो नही होगा ?
३, जब कुन्दकुन्द से किसी शिष्य ने प्रश्न किया कि वह एकस्व विभक्त शुद्ध आत्मा क्या है ? तो वह उसका उत्तर देते हुए कहते है" कि जो न अप्रमत्त है - अप्रमत्त आदि आयोगी पर्यन्त गुण स्थानों वाला है और न प्रमत है - मिथ्यादृष्टि आदि प्रमत्त पर्यन्त गुण स्थानों वाला है, मात्र ज्ञायक स्वभाव पदार्थ है वही एकत्व - विभक्त शुद्ध आत्मा है । उसके ज्ञान, दर्शन और चारित्र का भी उपदेश व्यवहारनय से है, निश्चयनय से न ज्ञान है, न चारित्र है और न दर्शन हैं। वह तो एक शुद्ध अखंड ज्ञायक ही है। कुन्दकुन्द का यह गुणस्थान-विभाग और नयविभाग से आत्मा का कथन आगम प्रमाण पर आधृत है ।
४. वह शिष्य पुनः प्रश्न करता है कि हमें एकमात्र परमार्थ ( निश्चयनय) का ही उपदेश दीजिए, व्यवहारनय की चर्चा यहाँ (एकत्व - विभक्त शुद्ध आत्मा के प्रदर्शन मे ) अनावश्यक है, क्योंकि वह परमार्थ का दिग्दर्शक नहीं है ? इसका उत्तर आचार्य कुन्दकुन्द एक उदाहरण पूर्वक देते हुए व्यवहारनय की आवश्यकता प्रकट करते है* – जैसे अनार्य ( म्लेच्छ ) को उसकी म्लेच्छ भाषा के बिना वस्तु ( अनेकान्त आदि) का स्वरूप समझाना आवश्यक है और उसकी भाषा मे बोलकर उसे उसका स्वरूप समझाना शक्य है, उसी प्रकार ससारी जीवों को व्यवहारनय के बिना एकत्व - विभक्त शुद्ध आत्मा का स्वरूप समझाना भी अशक्य है, इसलिए उसकी आवश्यकता है। सर्वदित है कि पानी पोने के लिए लोटा ग्लास, कटोरी आदि पात्रों को आव श्यकता रहती है और पानी पी लेने के बाद उनकी आवश्यकता नहीं रहती यहा कुन्दकुन्द ने अनुमान के एक अवयव उदाहरण को स्वीकार कर स्पष्टतया दर्शन का समावेश किया है ।
५. यो तो अध्यात्म मे निश्चयनय और व्यवहारनय दोनों को यथास्थान महत्त्व प्राप्त है किन्तु अमुक अवस्था तक व्यवहार ग्राह्य होते हुए भी उसके बाद वह छूट जाता है या छोड़ दिया जाता है। निश्चयनय उपादेय है। व्यवहार जहाँ अभूतार्थ है वहां निश्वयनय भूतार्थ है इस भूतार्थ का धय लेने से वस्तुतः जीव सम्यग्दृष्टि होता है।" आचार्य कुन्दकुन्द ने गाया ११ व १२ मे यही सब प्रतिपादन किया है। यहां भी उनका स्यादवाद समाहित
आश्रय