________________
समयसार का दार्शनिक पृष्ठ
है, जो तीथंकरों का उपदेश है । यहां हम आचार्य अमृतचन्द्र ८. कुन्कुन्द भेदविज्ञान की सिद्धि करते हुए कहते हैं।० द्वारा व्याख्या (गाथा १२) मे उद्धत एक प्राचीन गाथा उपयोग में उपयोग है, क्रोधादिक में उपयोग नही है, को देने का लोभ संवरण नही कर सकते। यह इस वास्तव में क्रोध में ही क्रोध है, उपयोग मे क्रोध नही है। प्रकार है
आठ प्रकार के कर्मों में तथा शरीर आदि नौ कर्मों में भी जइ जिण मयं पवनह ता मा ववहार-णि च्छए मुयह । उपयोग नहीं है और उपयोग में कर्म तथा नौकर्म भी नही एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्च ॥ है। जिस काल में ऐसा यथार्थ ज्ञान होता है उस काल मे
"यदि जिनमत की प्रवृत्ति चाहते हो, तो व्यवहार और उपयोगस्वरूप शुद्ध आत्मा उपयोग के सिवाय अन्य कुछ भी निश्चय दोनों को मत छोडो। व्यवहार को छोड देने पर भाव नही करता। ऐसा भेदविज्ञान ही अभिनन्दनीय है तीर्थ का उच्छेद हो जावेगा और निश्चय को छोड़ देने पर और इस भेदविज्ञान से ही उसी प्रकार शुद्ध आत्मा की तत्त्व (स्वरूप) का नाश हो जावेगा । अत: दोनो नय उपलब्धि होती है जिस प्रकार अग्नि से तपा हुआ भी सम्यक् हैं और ग्राह्य है।"
सोना अपने स्वर्ण स्वभाव को नही छोडता । ज्ञानी जीव भी ६. यथार्थ मे नयो के द्वारा वस्तु को समझना और कर्मोदय से तप्त होने पर भी अपने ज्ञानस्वभाव को नहीं समझाना भी दर्शनशास्त्र का विषय है। आचार्य गद्धपिच्छ छोडता । सच तो यह है कि जीव शुद्ध को जानेगा ता ने "प्रमाणनयं रधिगमः" (त० सू० १-६) द्वारा स्पष्ट शद्ध की ही उपलब्धि होगी और यदि वह शुद्ध को जानता बतलाया है कि जहा प्रमाण वस्तु को जानने का साधन है है तो उसे शुद्ध आत्मा की ही प्राप्ति होगी । यह और वहा नय भी उसे जानने का साधन है और इसलिए आगे जितना और जो भी कुन्दकुन्द का चिन्तन है वह सब प्रमाण और नय दोनों को न्याय कहा गया है। दोनो मे दर्शन है-दर्शनशास्त्र हे। अन्तर यही है कि प्रमाण अखउ वस्तु (धर्मों) को ग्रहण ६. शिष्य प्रश्न करता है कि बन्ध कैसे टूटता है ? करता है और नय उसके अशो (धर्मों) को विषय करता कन्दकन्द इसका उत्तर देते हुए कहते है" कि बन्ध न तो है । अत. कुन्दकुन्द का निश्च । और व्यवहार नयो द्वारा उसके स्वरूप ज्ञान से टूटता है और न उसकी चिन्ता करने विवेचन दार्शनिक दृष्टि को प्रशित करता है। वे कहते से वह नष्ट होता है । अपितु जैसे बन्धन मे बधा हुआ है कि व्यवहारनय तो जीव ओर देह को एक कहता है । पर पुरुष उस बन्धन को तोड़ कर ही मुक्त होता है। उसो निश्चयनय कहता है कि जीव और देह य दोनो कभी एक प्रकार जीव भी कर्म के बन्धन को छेद कर ही मुक्ति प्राप्त पदार्थ नही हो सकते।"
करता है। यहां उन्होने प्राचरण पर पूर। बल दिया है। ७. शिष्य पूछता है कि आत्मा म कर्मबद्ध-स्पष्ट है या अबद्ध-स्पृष्ट है ? इसका कुन्दकुन्द ने नय० विभाग से १०. आत्मा के कर्तृत्व को लेकर श्रमणो मे अनेक उत्तर देते है कि जीव में कर्म बद्ध (जीव के प्रदेशो के मत प्रचलित थे । उन सब की आलोचना कुन्दकुन्द ने साथ बधा हुआ) है और सयोग होने से स्पष्ट (लगा हुमा) गाथा ३२१, ३२२ और ३२३ मे की है और कहा है कि है, ऐसा व्यवहारनय कहता है तथा जीव प कर्म न बंधा ऐसा मानने पर लोक और श्रमणों के कथन मे क्या भेद हुआ है। ऐसा शुद्ध नय बतलाता है। यहा भी कुन्दकुन्द रहेगा? लोक बिष्णु को कर्ता मानते है और श्रमण प्रात्मा शिष्य के प्रश्न का समाधान नय-विभाग (स्याबाद-सरणि) को। और इस प्रकार दोनो से ही मोक्ष सम्भव नही। से देते हैं। उनसे उनकी यहां भी दार्शनिकता स्पष्ट विदित कर्म कर्तृत्व मानने पर सांख्य मत के प्रसग का दोष देकर होती है। इसके सिवाय एक महत्त्वपूर्ण बात वे यह कहते सांख्य मत को भी उन्होने प्रदर्शित किया है।" कहा है कि हैं कि जीव मे कर्म बधे हुए हैं और नही बंधे हए है, "तेसि पयडी कुम्वइ अप्पा य अकारया सव्वे।"-प्रकृतिः ये दोनों एक-एक पक्ष (नयष्टि यां) है किन्तु जो इन दोनों की पुरूषस्तु अकर्ता-प्रकृति की है और पुरुष (आत्मा) पक्षों से अतीत (रहित) है वही समयसार (शुद्ध आत्म- अकर्ता है। कई मतो का और भी कुन्दकुन्द ने दिग्दर्शन तत्त्व) है।
कराया है । इसी प्रकरण में वे पुनः सांख्यमत को दिखाते