Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 18
________________ १६ वर्ष ३४, कि.१ उपेक्षा नही की जा सकती। पुद्गल द्रव्य के सिवाय सभी ही अनेकान्त की प्रवृत्ति है, अनेकाम्त की अवहेलना नहीं प्रमूतं द्रव्यों में प्रदेश का भाव प्राकाश क्षेत्र से ही होगा की गई -'मनेकान्तऽप्यनेकान्त'। प्रसंग मे भी इसी उपयोग के अनुसार नही। पाघार परमात्मा के प्रसंरूपातप्रदेशत्व का विधान किया मत पुर्वगलाव्ये संख्यातासंख्यातानंताणना पिण्डा गया है । तथाहिस्कंधास्त एव विविधा प्रवेशा भण्यं ते न च क्षेत्रप्रवेशाः।- अनेकान्त को दो कोटियां है। एक ऐसी कोटि जिसमें (शेषाणां क्षेत्राऽपेक्षेति फलितम्) प्रपेक्षादष्टि मे अंशो को क्रमशः जाना जाय और दूसरी -३० द्रव्य स० टीका गाए २५ कोटि वह जिसमे सकल को युगपत् प्रत्यक्ष जाना जाय । सिद्धत्वपर्याय में उस पर्याय के उपादान कारणभूत प्रथम कोटि मे रूपी पदार्थों को जानने वाले चार ज्ञानधारी शुद्वात्मद्रव्य के क्षेत्र का परिमाण-चरमदेह से किचित् तक के सभी छयस्थ प्राते है। इन सभी के ज्ञान परम्यून है जो कि तत्पर्याय (अंतिम शरीर) परिमाण ही है, सहायापेक्षी पाशिक और क्रमिक होते है। प्रत्यक्ष होने एक प्रदेश परिमाण नही। पर भी वे 'देश-प्रत्यक्ष' हो कहलाते है। दूसरे शब्दों मे __ किंचिदूणचरमशरीरप्रमाणस्य सिद्धत्वपर्यायस्यो. इन सभी को एक समय में एक प्रदेशमाही भी माना जा पाबानकारणभूतशद्वात्मतव्य तत्पर्यायप्रमाणमेव ।' सकता है यानी ये एक प्रदेश (ऊर्ध्वप्रचय) के ज्ञाता होते --वही है। दूसरी कोटि मे केवली भगवान को लिया जायगा यत. द्रव्यसग्रह में शका उठाई गई है कि सिद्ध-प्रास्मा को ये एक और एकाधिक प्रनंत प्रदेश (तियंकप्रचय-बहप्रदेशी स्वदेहपरिमाण पयो कहा ? वहाँ स्पष्ट किया हैकि-- द्रव्य) के युगपत् ज्ञाता है। प्राचार्यों ने इसी को ध्यान मे ___'स्वदेहमितिस्थापनं यायिकमीमांसासांख्ययं लेकर ऊर्ध्व प्रचय को 'कमाउनकान्त' पोर तियंक प्रचय को प्रति ।' -वही गाथा २ टीका 'प्रक्रमाऽनेकान्त' नाम दिए है--- __ स्मरण रहे कि कोई प्रात्मा को प्रणुमात्र (प्रप्रदेशी) तिर्यप्रचय: तिर्यक सामान्यपिति विस्तारसामान्यकहते है और कोई व्यापक। उनकी मान्यता समीचीन मिति 'प्रकमाउनेकान्त' इति च भण्यते ।.."ऊर्ध्व प्रचय नहीं, यहां यह स्पष्ट किया है। इत्यूर्वसामान्यमित्यायतसामाश्यमिति 'क्रमाऽनेकान्त' इति पंचास्तिकाय में प्रात्मा के प्रदेशो के संबंध में लिखा है- च भण्यते।' निश्चयेन लोकमात्रोऽपि। विशिष्टावगाहपरिणाम -प्रव० सार (त० ००) १४११२००६ शक्तियुक्तत्वात नामकर्म नितमणुमहत्तशरीरमषितिष्ठन् 'वस्तु का गुण समूह प्रक्रमाऽनकान्त है क्योकि गुणो व्यवहारेण बेहमानो।' -(त. हो०) को वस्तु म युगपदवृत्ति है पोर पर्यायो का समूह कमा"निश्चयेन लोकाकाशप्रतिमाऽसंख्येयप्रदेशप्रमितोऽपि उनकान है, क्योकि पयायों को बस्तु में कम से वृत्ति व्यवहारेण शरीरनामकर्मोदय जनिताणमहन्छरीर है'प्रमाणत्वात् स्वदेहमात्रो भवति। -(तात्पर्य व०) २७, -जैनेन्द्र सि. कोष पृ० १०८ यदि उपयोगावस्था मे पात्मा प्रप्रदेशी माना जाता है स्पष्ट है कि क्रमाऽनेकान्त मे वस्तु का स्वाभाविक तो मात्मा के प्रखंड होने से यह भी मानना पड़ेगा कि पूर्णरूप प्रकट नही होता, स्वाभाविक पूर्णरूप तो प्रक्रमामात्म प्रदेश बृहत् शरीर मे सिकुड़ कर प्रदेशमात्र-प्रवगाह ऽनेकान्त में ही प्रकट होता है और बहुप्रदेशित्व का युगमें हो जाते हैं और शेष पूरा शरीर भाग प्रात्महीन (शून्य) पद्माही ज्ञान केवलज्ञान ही है। प्रतः केवलज्ञानगम्यरहता है-जैसा कि पढ़ने सुनने में नहीं पाया। प्रदेशसम्बन्धी वही रूप प्रमाण है, जो सिद्ध भगवान का छपस्थ का ज्ञान प्रमाण पोर नयगभित है पोर रूप हैकेवली भगवान का ज्ञान प्रमाणरूप है। नय का भाव किचिदूणा चरम देहहो सिताः। पतिअंशमाही मोर प्रमाण का भाव सर्वग्राही है। दोनो में -प्रसंख्यात प्रदेशी।

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