Book Title: Anekant 1981 Book 34 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 27
________________ यनानी दर्शन पौरन वर्शन उत्पाद व्यय और प्रौव्यमुक्त माना है। एक जाति का स्वसिद्धान्त विरोध दोष होता है, क्योंकि प्रायः सभी बारी पविरोध जो क्रमभावों भावों का प्रवाह उसमे पूर्व भाव का प्रत्यक्ष पदार्थों को स्वीकार करते ही है।' विनाश सो व्यय है, उत्तरभाव का प्रादुर्भाव उत्पाद है। हिरक्लिटस (५३५.४७५ ई०पू०) का कहना था पौर पूर्व उत्तर भावो के व्यय उत्पाद होने पर भी कि अग्नि विश्व का मलत्वा मूल अग्नि अपने पाप को स्वजाति का प्रत्याग घ्रोग्य है। ये उत्पाद, व्यय भार वाय में परिवर्तित करती है. वायू जल बनती है भोर जल ध्रौव्य सामान्य कथन से द्रव्य से अभिन्न है और विशेष . पृथ्वी का रूप ग्रहण करता है। यह नीचे की भोर का मादेश से भिन्न है, युगपद वर्तते है और स्वभावभत है।' । मार्ग है, इसके विपरीत ऊपर को प्रोर का मार्ग है। इसमें इस प्रकार वस्तु को उत्पाद, व्यय ध्रौव्ययुक्त मान लेने पर पृथिवी जल में, वायु जल में, वायु अग्नि मे बदलते है। परिवर्तन रहित नित्यवस्तु का अस्तित्व सिद्ध नही होता जैन दर्शन अग्नि प्रादि के परमाणु को वायु भादि के है। प्राचार्य समन्तभद्र ने कार्य कारणादि के एकत्व परमाणपों के रूप में बदलना तो मानता है। किन्तु (अविभाज्यता) का भी विरोध किया है। उनका कहना , उनका मूल पोद्गलिक परमाणु ही है। पुद्गल विश्व के कार्यकारणादि का सर्वथा एकत्व माना जाय तो निर्माणकर्ता छः द्रव्यों मे एक है । हिरैक्लिटस के अनुसार कारण तथा कार्य मे से किसी एक का प्रभाव हो जायगा संसार मे स्थिरता का पता नही चलता, अस्थिरता ही और एक के प्रभाव से दूसरे का भी प्रभाव होगा; क्योंकि विद्यमान है । जो कुछ है, क्षणिक है । हिरैक्लिटस के इस उनका परस्पर में प्रविनाभाव है। तात्पर्य यह कि कारण क्षणभंगवाद की तुलना बौद्धो के क्षणभङ्गवाद से की जाती कायं की अपेक्षा रखता है। सर्वथा कार्य का प्रभाव होने है। क्षणभनषाद का जन प्राचार्यों ने अनेक स्थानो पर पर कारणत्व बन नही मकता और इस तरह सर्व क खण्डन किया है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने कहा है.-"यदि वस्तु पभाव का प्रसङ्ग उपस्थित होता है। का स्वभाव क्षणभङ्गर ही माना जाय तो पूर्वकृत कर्मों का जीनोफेनीज (४६५ ई०पू०) ने यह बताने का फन बिना भोगे ही कृश हो जायगा। स्वयं नही किए हुए प्रयत्न किया कि गति का कोई अस्तित्व नहीं। जनदर्शन कमो का फल भी भोगना पड़ेगा तथा ससार का, मोक्ष मे जीव भोर पुदगलों की गति मे नियामक द्रव्य धर्म को का पौर स्मरणशक्ति का नाश हो जायगा। तात्पर्य यह स्वीकार किया गया है। इसके लिए यहाँ पागम मोर कि प्रत्येक वस्तु क्षणस्थायी मानने पर प्रात्मा कोई पृथक अनुमान प्रमाण उपस्थित किए गए है। अनुमान प्रमाण पदार्थ नही बन सकता तथा भात्मा के न मानने पर संसार उपस्थित करते हुए कहा गया है कि जैसे अकेले मिट्टी के नही बनता; क्योकि क्षणिकवादियों के मत में पूर्व मौर पिण्ड से घड़ा उत्पन्न नहीं होता, उसके लिए कुम्हार, चक्र, अपर क्षणो में कोई सम्बन्ध न होने से पूर्वजन्म के को चीवर प्रादि अनेक बाह्य उपकरण अपेक्षित होते है, उसी का जन्मान्तर मे फल नही मिल सकता। यदि कहो कि तरह पक्षी प्रादिकी गति और स्थितिभी अनेक बाह्य कारणो सन्तान का एक क्षण दूसरे क्षण से सम्बद्ध होता है । मरण की अपेक्षा कराती है। इनमे सबको गति पोर स्थिति के के ममय रहने वाला ज्ञानक्षण भी दूसरे विचार से सम्बद्ध लिए साधारण कारण क्रमशः धर्म भोर अधर्म होते है। होता है । इसलिए मसार की परम्परा सिद्ध होती है। यह यदि यह नियम बनाया जाय कि 'जो जो पदार्थ प्रत्यक्ष से ठीक नही; क्योकि सन्तान क्षणो का परस्पर सम्बन्ध करने उपलब्ध न हों, उनका प्रभाव है तो सभी वादियो को वाला कोई पदार्थ नही है। जिससे दोनों क्षणो का परस्पर ४. द्रव्य सल्लक्षणियं उप्पादस्वयधुवत्तसंजुत्तं । ७. तस्वार्थवातिक ११७३२.३५ । पंचास्तिकाय-१० ८. कृत प्रणाशाऽकृत कर्मभोगभव, ५. वही अमृतचन्द्र चन्द्राचार्य कृत टीका पृ० २७ । प्रमोक्षस्मृतिभङ्गदोषान् । ६. एकस्वेऽव्यतराभावः शेषाऽभावोऽविनाभवः ।। उपेक्ष्य साक्षात् क्षणभङ्गमिच्छन्न हो, देवागमस्तोत्र-६६ महासाहसिकः परस्ते ॥१८॥ स्यावाद मंजरी

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